शनिवार, 20 अप्रैल 2024

= १२१ =

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*दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।*
*दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*कुत्ता मेरा पहला गुरु था....*
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सूफी फकीर हुआ हसन; मरते वक्त किसी ने पूछा कि तेरे गुरु कौन थे ? उसने कहा, मत पूछो वह बात मत छेड़ो तुम समझ न पाओगे अब मेरे पास ज्यादा समय भी नहीं है मैं मरने के करीब हूं ज्यादा समझा भी न सकूंगा उत्सुक हो गए लोग उन्होंने कहा, अब जा ही रहे हो, यह उलझन मत छोड़ जाओ, वरना हम सदा पछताएंगे जरा से में कह दो अभी तो कुछ सांसें बाकी हैं उसने कहा, इतना ही समझो कि .....
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एक नदी के किनारे बैठा था और एक कुत्ता आया बड़ा प्यासा था, हांफ रहा था नदी में झांक कर देखा, वहां उसे दूसरा कुत्ता दिखाई पड़ा घबड़ा गया भौंका, तो दूसरा कुत्ता भौंका लेकिन प्यास बड़ी थी प्यास ऐसी थी कि भय के बावजूद भी उसे नदी में कूदना ही पड़ा वह हिम्मत करके...
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कई बार रुका, कंपा, और फिर कूद ही गया कूदते ही नदी में जो कुत्ता दिखाई पड़ता था वह विलीन हो गया वह तो था तो नहीं, वह तो केवल उसकी ही छाया थी नदी के किनारे बैठे देख रहा था, मैंने उसे नमस्कार किया वह मेरा पहला गुरु था फिर तो बहुत गुरु हुए उस दिन मैंने जान लिया कि जीवन में जहां-जहां भय है, अपनी ही छाया है और प्यास ऐसी होनी चाहिए कि भय के बावजूद उतर जाओ....
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हसन ने कहा, कुत्ते को देख कर मैं यह समझ गया कि भय को एक तरफ रखना होगा एक बात समझ में आ गई कि अगर परमात्मा मुझे नहीं मिल रहा है तो एक ही बात है, मेरी प्यास काफी नहीं है मेरी प्यास अधूरी है और कुत्ता भी हिम्मत कर गया तो हसन ने कहा, मैंने कहा, उठ हसन, अब हिम्मत कर इस कुत्ते से कुछ सीख.
Osho....Zorba The Buddha

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ३३/३६*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ३३/३६*
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कहै हूँ हरिजन हरि भगत, हरि की सेवा मांहि ।
कहि जगजीवन अगम हरि, तहां गम तेरी नांहि ॥३३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मैं प्रभु का बंदा हूँ भक्त हूँ व हरि की सेवा में लगा रहूँ । प्रभु मेरी पंहुच से दूर है । मैं वहां नहीं पहुंच पाता हूँ सामर्थ्य नहीं है ।
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उत्तर दिसि तिरिया बसै, पुरिष सु पूरब मांही ।
जगजीवन मूये मिलैं, जीवन मेला नांहि ॥३४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उत्तर में जहाँ गंगा सी नदी है व पूर्व में सूर्य प्रकाशित है । पर इनमें जीवित नहीं मृत्यु पश्चात ही एकाकार हुआ जाता है ।
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कासमीर केसर बसै, पूरब चंदन बास ।
त्रिया पुरुष तूटि र मिलै, सु कहि जगजीवनदास ॥३५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उत्तर का काश्मीर केसर से व  पूर्वांचल में चंदन से सुगंध है । इस प्रकार रंग रुपी पुरुष व सुगंध रुपी स्त्री दोनों मिलते हैं ।
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ज्वार बाजरौ उड़द दल, मोठ मूंग ए धांन ।
कहि जगजीवन गेहूँ चना मंहि, आठ अन्न ए ग्यांन ॥३६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ज्वार बाजरा उड़द मोठ मूंग ये एक क्रम व गेहूं चना ये दूसरे क्रम में अन्न व दलहन है ऐसा जाने ।
(क्रमशः) 

*व्यासदासजी की पद्य टीका*

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*दादू दूजा नैन न देखिये, श्रवणहुँ सुने न जाइ ।*
*जिह्वा आन न बोलिये, अंग न और सुहाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*इन्दव-*
*व्यासदासजी की पद्य टीका*
*आत भये गृह छाड़ वृन्दावन,*
*हेत इसो वन त्यागत खीजै ।*
*भूप बुलावत आप न भावत,*
*सेव किशोर हु में मन भीजै ॥*
*पाग जरी न रहै शिर चीकन,*
*बाँधन द्यौ नहिं आप बँधीजै ।*
*कुंज गये उठ आत भई सुधि१,*
*मंजु रह्यो बँध क्यों मम रीझै ॥३९३॥*
बुन्देलखण्ड, ओड़छा के राजपुरोहित पंडित सुमोखन शर्मा शुक्ल की धर्मपत्नी से मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी वि० सं० १५६७ को एक पुत्र उत्पन्न हुआ था । उस बालक का नाम हरिराम रखा गया था । हरिराम बड़े ही प्रतिभाशाली विद्वान् हुए । पिता के परलोकवासी होने पर आप ओड़छा नरेश मधुकर शाह के राजपुरोहित हो गये । आपको वाद-विवाद द्वारा दूसरे विद्वानों को पराजित करने का व्यसन था ।
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एक बार काशी गये वहाँ भी वाद विवाद में उत्कृष्टता रही । आपने श्रावण मास में विश्वनाथजी का अभिषेक कराया था । उससे भगवान् शंकर प्रसन्न हुए । उसी रात को स्वप्न में एक संत ने आपसे पूछा- "विद्या की पूर्णता कब होती है ?" आपने कहा- "सत्यासत्य को जानकर प्राप्त करने योग्य को प्राप्त करने से ।" संत ने कहा- "फिर आप प्राप्त करने योग्य प्रभु को प्राप्त क्यों नहीं करते ? विवाद में क्यों पड़े हो ? भक्ति द्वारा प्रभु को प्राप्त करे बिना आपकी विद्या अधूरी ही है ।"
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हरिरामजी जागे तब उनका विद्या का नशा उतर गया । वे काशी से सीधे ओड़छा आये । उसी समय हितहरिवंशजी के शिष्य संत नवलदासजी ओड़छा पधारे थे । उनके सत्संग से हरिरामजी को बड़ी तृप्ति प्राप्त हुई । वे घर छोड़कर वि० सं० १५९१ के कार्तिक मास में वृन्दावन पहुँचे । हितहरिवंशजी के पास गये तब वे भगवान् के भोग के लिये रसोई बना रहे थे । उसी समय हरिरामजी ने उनसे बातें करनी चाही । तब हितहरिवंशजी ने चूल्हे पर से पात्र उतार दिया और जल से अग्नि को शान्त कर दिया ।
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हरिरामजी ने कहा- "रसोई और बातें दोनों काम साथ हो सकते थे ?" हितहरिवंशजी ने कहा- "दोनों स्थानों पर मन लगाये रखना व्यभिचारात्मक चित्तवृति है । यह काल सर्प से ग्रसित है, अतः उस काल ब्याल से बचने के लिये चित्त को सब ओर से खींचकर श्रीश्यामा श्याम के चरणों में ही लगाने वाला धन्य है ।" बस हरिरामजी ने हितहरिवंशजी से दीक्षा ग्रहण कर ली । राजपुरोहित न रहकर उनका नाम व्यासदास हो गया । सेवा कुञ्ज के पास एक मन्दिर बनाकर राधाकृष्ण की सेवा में लग गये ।
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आपका वृन्दावन में ऐसा स्नेह था कि कोई वृन्दावन से जाना चाहता था, उस पर आप रुष्ट होते थे । ओड़छा नरेश आपको बुलाते थे किन्तु आपको वृन्दावन से जाना अच्छा नहीं लगता था । राजा ने अपने मंत्री को भेजा कि एक बार पुरोहितजी को यहाँ अवश्य लाओ । उसने बहुत प्रयत्न किया; किन्तु आप अडिग ही रहे । मन्त्री ने हितहरिवंशजी को कहा । आपने कहा-अच्छा मैं तुम्हारी बात उनको कह दूँगा, एक बार हो आयेंगे ।
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इनको ज्ञात हो गया कि गुरुजी ओड़छा जाने की आज्ञा देंगे । आप यमुना के तट के झाउओं में छिप गये । तीन दिन तक पता नहीं लगा । तब हितहरिवंशजी ने अपने शिष्यों को भेजा । गुरुजी ने बुलाया है यह सुनकर झाउओं से निकल, यमुना स्नान कर, मुख को काला करके तथा एक गधा लेकर चले । पूछने पर कहा- "गुरुजी वृन्दावन छोड़ने की आज्ञा देंगे । तब वृन्दावन से काला मुख करके और गधे पर चढ़कर ही जाऊँगा । उस समय मिले या नहीं मिले इसके साथ लिया है ।"
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यह जब हितहरिवंशजी को ज्ञात हुआ तब उनने कह दिया- "मैं तो उनको वृन्दावन से जाने का नहीं कहूँगा ।" फिर गुरुजी के पास आये । गुरु ने हृदय से लगा लिया । फिर भी मंत्री का आग्रह बना ही रहा । मन्त्री ने आपको सब संतों की जूठी पत्तलों से उठा कर जुठन खाते देखा तब उपराम हो गया । मन्त्री ने ओड़छे आकर कहा- "वे तो सब की जूठन खाने लग गये हैं, किसी काम के नहीं रहे ।" किन्तु राजा भक्त था । उसकी और भी श्रद्धा बढ़ी, स्वयं वृन्दावन गया और कहा ओड़छे एक ही दिन पधारिये ।
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व्यासदासजी कुछ न कुछ बहाना बनाते रहे । अन्त में राजा ने अपने कर्मचारियों को कहा- "इनको बलपूर्वक पालकी में बैठाकर ले चलो ।" तब आपने कहा- मेरे भाई बन्धुओं से मिल लूँ फिर चलूँगा । वे वृन्दावन के प्रत्येक वृक्ष को छाती से लगा कर फूट फूट रो रो कर कहने लगे "क्या करूँ मैं तो आप को नहीं छोड़ना चाहता, मुझे बिना इच्छा ही ले जा रहा हैं ।" यह देखकर राजा का भी मन पिघल गया । उसने ले जाने का आग्रह छोड़ दिया और क्षमा माँगी । आपका मन तो नन्दकिशोर की सेवा में हो निमग्न हो रहा था, कैसे जाते, नहीं गये ।
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फिर आपकी धर्मपत्नी भी अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर वृन्दावन आ गई । धर्मपत्नी ने आपकी आज्ञा के अनुसार रहना स्वीकार किया तब उसे दीक्षा देकर उसका नाम वैष्णवदासी रख दिया । एक पुत्र ने हरिदास से दीक्षा ली और युगलकिशोरदास नाम से प्रसिद्ध हुये । ये भी वृन्दावन को छोड़कर नहीं जाते थे, धामनिष्ठा के भक्त थे । इनका नाम धामनिष्ठा के भक्तों में मूल छप्पन २६२ में आया है । एक जरी का पाग किसी ने भगवान् के लिये भेजा था । उसको भगवान के सिर पर व्यासदासजी बाँध रहे थे किन्तु भगवत् मूर्ति का शिर चिकना होने से वह ठीक नहीं बँधता था ।
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तब आपने भगवान् से कहा- "या तो मुझे बाँधने दो और मेरा बाँधा हुआ आपको अच्छा नहीं लगे तो आप बाँध लीजिये ।" ऐसा कहकर उठ खड़े हुए और सेवा कुंज के दर्शन करने चले गये । कुछ देर के बाद ही घर से किसी व्यक्ति ने आकर कहा- "पाग भगवान् के शिर पर बहुत अच्छा बँधा है ।" यह सूचना१ आते ही आपने आकर देखा तो बड़ा सुन्दर बँधा है । उसको देखकर आप बड़े प्रसन्न हुए और बोले - "जब आप ही ऐसा सुन्दर बाँधना जानते हैं तब मेरे बाँधे हुये से आप कैसे प्रसत्र होते"!
(क्रमशः)

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

= १२० =

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*मति बुद्धि विवेक विचार बिन, माणस पशु समान ।*
*समझायां समझै नहीं, दादू परम गियान ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है, एक आदमी मरा। अकड़ से स्वर्ग में प्रवेश किया। द्वारपाल ने पूछा कि भाई, बड़े अकड़ से आ रहे हो, मामला क्या है ? क्या पुण्य इत्यादि किए हैं ? क्योंकि पुण्य इत्यादि करनेवाले अकड़ से जाते हैं। उसने कहा कि तीन पैसे मैंने दान दिए हैं। खाते—बही खोले गए। तीन ही पैसे का मामला था कुल। हेडक्लर्क ने सब देखा— दाखा। 
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उसने अपने असिस्टेंट क्लर्क से पूछा कि भाई क्या करें, तीन पैसे इसने दिए जरूर हैं, लिखे हैं। उसके असिस्टेंट ने कहा : इसको तीन पैसे के चार पैसे ब्याज—सहित वापस कर दो और भेजो नरक। है यह नरक के योग्य ही। तीन ही पैसे दिए और ऐसे अकड़कर आ रहा है जैसे तीन लोक दे दिए हों।
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हम दे ही क्या सकते हैं ? जो भी हम दे सकते हैं वह तीन ही पैसे का है। खयाल रखना। कहानी को ऐसे ही मत समझ लेना कि तीन ही पैसे दिए तो क्या अकड़ना था ! कोई तीन लाख देता, तीन लाख भी तीन ही पैसे हैं। परमात्मा के समक्ष तुम तीन लाख दो कि तीन करोड़ दो, इससे क्या फर्क पड़ता है ? इस जगत् की संपदा ही दो कोड़ी की है। 
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सारी संपदा दो कौड़ी की है। इसमें अकड़। 8 लेकिन, लोग सोचते हैं कि स्वर्ग मिल जाएगा। वह भी धंधा है। इस दुनिया में भी दुकान चलाते हैं, वे उस दुनिया में भी दुकान चलाना चाह रहे हैं। पुण्य का तुम्हें पता ही नहीं। पुण्य का क्या अर्थ होता है ? अकारण, आनंद— भाव से किया गया कृत्य। 
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प्रेम से किया गया कृत्य। जिसके पीछे लेने की कोई आकांक्षा ही नहीं है। धन्यवाद की भी आकांक्षा नहीं है। कोई पानी में डूबता था, तुम दौड़कर उसे निकाल लिए, फिर खड़े होकर यह मत राह देखना कि वह धन्यवाद दे, कि कहे कि आपने मेरा जीवन बचाया, आप मेरे जीवनदाता हो! इतनी भी आकांक्षा रही तो पुण्य खो गया।
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तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद
तुमने अपने आनंद से बचाया, बात समात हो गयी। तुमने किसी को अपने आनंद से दिया। इसलिए जब तुम किसी को कुछ दो तो देने के बाद धन्यवाद भी देना कि तूने स्वीकार किया। तू इनकार भी कर सकता था।
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देखते हो, इस देश में एक परंपरा है——दान के बाद दक्षिणा देने की ! वह बड़ी अतूत परंपरा है। वह बड़ी प्यारी परंपरा है। ” दक्षिणा ” का मतलब क्या होता है? दक्षिणा का मतलब होता है : तुमने हमारा दान स्वीकार किया, इसका धन्यवाद। 
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जिसको दिया है वह धन्यवाद दे, इसकी आकांक्षा है ही नहीं; जिसने दिया है वह धन्यवाद दे कि तुमने स्वीकार कर लिया हमारे प्रेम को; दो कौड़ी थी हमारे पास, तुमने स्वीकार कर लिया, इतने प्रेम से, इतने आनंद से——तुमने हमें धन्यभागी किया, तुमने हमें पुण्य का थोड़ा स्वाद दिया।
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पुण्य का कोई भविष्य, फलाकांक्षा से संबंध नहीं है। पुण्य का तो स्वाद अभी मिल जाता है, यहां मिल जाता है।
नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रकट भे मानुष—देही।
मनुष्य का जीवन मिला और पुण्य का पता न चला, तो सार क्या है ? 
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जो तुम कर रहे हो, वह तो पशु भी कर लेते हैं, पशु भी कर रहे हैं। इसमें तुम्हें भेद क्या है ? तुम अपनी जिंदगी को कभी बैठकर जांचना, तुम जो कर रहे हो, इसमें और पशु के करने में भेद क्या है ? तुम रोटी— रोजी कमा लेते हो, तो तुम सोचते हो कि पशु नहीं कर रहे हैं ? 
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तुम से ज्यादा बेहतर ढंग से कर रहे हैं, मजे से कर रहे हैं। तुम बच्चे पैदा कर लेते हो, तुम सोचते हो कि कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो। इस देश में ऐसे ही समझते हैं लोग। बड़े अकड़कर कहते हैं कि मेरे बारह लड़के हैं। जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो ! अरे, मच्छरों से पूछो ! हिसाब ही नहीं संख्या का। कीड़े—मकोड़े कर रहे हैं। 
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तुम इसमें क्या अकड़ ले रहे हो ? बारह बेटे कौन—सा मामला बड़ा ? और मुसीबत बढ़ा दी दुनिया की। एक बारह उपद्रवी और पैदा कर दिए। ये घिराव करेंगे, हड़ताल करेंगे और झंझट खड़ी करेंगे। लेकिन लोग सोचते हैं कि बच्चे पैदा कर दिए तो बड़ा काम कर दिया; मकान बना लिया तो बड़ा काम कर दिया। पशु—पक्षी कितने प्यारे घोंसले बना रहे हैं! उनके लायक पर्याप्त हैं।
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तुम जरा सोचना। क्रोध है, काम है, लोभ है, मद, मोह, मत्सर, सब पशुओं में है! फिर तुममें मनुष्य होने से भेद क्या है? तो एक ही बात की बात कह रहे हैं धरमदास कि पुण्य का स्वाद हो, तो तुम मनुष्य हो, तो मनुष्य होने में कुछ भेद पड़ा। इसे खयाल रखना। अरस्तु ने कहा है: आदमी का भेद यह है कि आदमी में बुद्धि है, विचार है।

ओशो

= ११९ =

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*दादू साचे को झूठा कहैं, झूठे को साचा ।*
*राम दुहाई काढिये, कंठ तैं वाचा ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है, एक आदमी मरा और उसने जाकर स्वर्ग में जब देखा, तो वह बहुत नाराज हुआ। एक पापी जो उसके घर के सामने ही रहता था वह परमात्मा के पास बैठा हुआ है। उसे नर्क में होना चाहिए। उसने कहा, यह अन्याय है। यह क्या मैं अपनी आंख से देख रहा हूं ! तो यह भी रिश्वत चल रही है, कि भाई-भतीजावाद चल रहा है।
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क्या मामला है ? यह आदमी यहां कैसे बैठा है ? यह पापी है। और मैं सदा तुम्हारा गुणगान गाता रहा। और सिवाय कष्ट के मुझे जिंदगी में कुछ न मिला और अब यह कष्ट तुम दे रहे हो, कि इस पापी को यहां देखना पड़ेगा स्वर्ग में ? तो मतलब हमारे पुण्य का क्या है ! परमात्मा ने कहा, कि तुम इसमें ही खैर समझो, कि तुम स्वर्ग में हो। इरादा तो तुम्हें नर्क में भेजने का था।
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उस आदमी ने कहा क्या ? और मैं राम-राम जपता रहा–दिन में नहीं, रात में तक। सोते, जागते, राम की धुन लगाए रहा। परमात्मा ने कहा, उसी की वजह से तो। तुमने मुझे तक नहीं सोने दिया। तुम खोपड़ी खा गए। एक रात चैन न लेने दिया। तुम काफी सौभाग्य समझो, कि तुम यहां प्रवेश किए जा रहे हो। और यह आदमी यहां है, क्योंकि इसने मुझे कभी सताया नहीं। इसने न तो कभी कोई प्रार्थना की, न कभी पूजा की, न यह कभी मंदिर गया। दुनिया इसे पापी समझती थी। क्योंकि दुनिया जिसे पुण्य समझती है वह पुण्य ही नहीं है। मंदिर जाने में क्या पुण्य है ?
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लेकिन इस आदमी ने चुपचाप दिनों की सेवा की है। इधर दुकान पर कमाया, उधर गरीबों को बांट दिया। बांटा भी इसने शोरगुल करके नहीं। अखबार वालों को बुला कर नहीं बांटा। फोटोग्राफर तैयार नहीं रखे। चुपचाप लोगों के घरों में डाल आया। उनको भी पता नहीं है। वह धन्यवाद देने का भी मौका इसने नहीं दिया। वह मंदिर नहीं गया, यह सच है। इसने पूजा नहीं की, यह सच है। लेकिन यह मेरा प्यारा है।
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ना मैं मूरत धरि सिंहासन, ना मैं पुहुप चढ़ाई
ना हरि रीझै जप तक कीन्हें, ना काया के जारे।
और तुम शरीर को तपाओ, जलाओ, इससे तुम सोचते हो, परमात्मा प्रसन्न होगा ? आत्मा तक प्रसन्न नहीं होती, परमात्मा क्या प्रसन्न होगा ! भीतर की आत्मा से पूछो। वह परमात्मा का प्रतिनिधि है तुम्हारे भीतर। पीड़ा पाती है। पीड़ा कभी पूजा नहीं हो सकती। उत्सव ही केवल पूजा हो सकती है।
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तुम जब प्रफुल्लित हो, जब तुम्हारा सारा शरीर खिला है और स्वस्थ है, जब तुम्हारे सारे शरीर के रंग-रंग, रोएं-रोए में जीवन की धारा बह रही है, जब तुम नाच सकते हो, तभी तुम्हारी आत्मा प्रसन्न है। और जिस बात में आत्मा प्रसन्न है, वही परमात्मा की पूजा है। तुम अपनी आत्मा की सुनो, तुमने परमात्मा की सुनी। तुमने अपनी आत्मा की न सुनी, तुम परमात्मा के दुश्मन हो।
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गुरजिएफ कहा करता था, कि दुनिया के सारे धर्म परमात्मा के दुश्मन हैं। और वह ठीक कहता था। क्यों? वे सब तुम्हें तुम्हारी आत्मा की सुनने को नहीं सिखाते। उनके पास बंधे हुए अनुशासन हैं, उनको पूरा करो। अगर तुम्हारी आत्मा इनके विपरीत है, तो दबाओ। अपने को मारो। अपना ही गला घोंटो। वे सब आत्मघाती हैं।
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ना हरि रीझै धोति छाड़े…
और नग्न हो जाने से कोई हरि को रिझा लोगे ?
ना पांचों के मार…
और पांचों इंद्रियों को भी मार डालो। फोड़ लो आंखें अपनी। कान में सीखचें डाल लो, ताकि न सुनाई पड़ेगा संगीत, न वासना पैदा होगी। न दिखाई पड़ेगा रूप, न वासना पैदा होगी। मार डालो, काट डालो पांचों इंद्रियों को। वही तो तुम्हारे साधु संन्यासी कर रहे हैं।
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परमात्मा बनाता है, तुम मिटाते हो। तुम कैसे उसके मित्र हो सकते हो? परमात्मा आंखें बनाता है, तुम फोड़ते हो। परमात्मा कान देता है, तुम बहरे बनना चाहते हो। जो परमात्मा ने दिया है, उसे मिटाओ मत, उसे संभालो। उसे सुसंस्कृत करो, उसे संवेदनशील बनाओ। आंख ऐसी संवेदनशील हो जाए, कि रूप दिखाई पड़े ही, रूप के भीतर छिपा अरूप भी दिखाई पड़ने लगे।
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कान ऐसे श्रवण की गहनता को उपलब्ध हो जाएं, कि संगीत तो सुनाई पड़े ही, सब संगीत में जो शून्य छिपा है, वह भी सुनाई पड़ने लगे। स्वर तो है ही संगीत में, शून्य भी है। स्वर ऊपर का आवरण है। शून्य भीतर का प्राण है। रूप तो है ही फूल में, अरूप भी है। रूप तो है ही एक सुंदर स्त्री में, सुंदर पुरुष में; अरूप भी है। आकार तो दिखाई पड़े ठीक, निराकार भी दिखाई पड़े। आंख चाहिए ऐसी।
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तुम आंख फोड़ रहे हो, कि रूप से डर गए हो कि कहीं रूप न दिखाई पड़ जाए, नहीं तो वासना पैदा होती है। ठीक है। रूप दिखाई पड़ने से वासना पैदा होती है। आंख फोड़ लेने से रूप दिखाई न पड़ेगा। इस भ्रांति में मत रहना। अंधे में भी वासना होती है भयंकर वासना होती है। और तुम तो कुछ भी कर सकते हो। वह बेचारा कुछ कर नहीं पाता। इसलिए बड़ी असहाय वासना होती है। बड़ी विकृत, पर्वर्टेड।
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सच है। रूप दिखाई पड़ने से वासना पैदा होती है। इसका अर्थ है कि थोड़ा और गहरे देखो: अरूप दिखाई पड़ने के करुणा पैदा होती है। रूप दिखाई पड़ने से काम पैदा होता है। अरूप दिखाई पड़ने से प्रेम पैदा होता है। आंख को बढ़ाओ, स्वाद को बढ़ाओ। स्वाद को मिटाओ मत। जीभ को जला लेना बहुत आसान है।
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क्या कठिनाई है ? स्वाद से घबड़ाओ मत। स्वाद में परम स्वाद भी छिपा है। अस्वाद को उपलब्ध नहीं होना है, परम स्वाद को उपलब्ध होना है। तब तुम परमात्मा की धारा में बह रहे हो। तब तुम्हें कुछ करना न पड़ेगा। तुम ऐसे ही बहते हुए पहुंच जाओगे। धारा जा रही है सागर की तरफ। तुम बस, धारा के साथ एक हो जाओ।
आचार्य रजनीश ओशो

= ११८ =

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*दादू साचे को झूठा कहैं, झूठे को साचा ।*
*राम दुहाई काढिये, कंठ तैं वाचा ॥*
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*निंदा रस*

कभी आपने देखा कि कोई आ कर जब आपको किसी की निंदा करता है, तो आप कैसे मन से, कैसे भाव से स्वीकार करते हैं ? आप यह नहीं पूछते कि यह बात सच है ? आप यह नहीं पूछते कि इसका प्रमाण क्या है ? आप यह भी नहीं पूछते कि जो आदमी इसकी खबर दे रहा है, वह प्रमाण योग्य है ? आप यह भी नहीं पूछते कि इसको मानने का क्या कारण है ? क्या प्रयोजन है ?
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नहीं, कोई निंदा करता है तो आपका प्राण एकदम खुल जाता है, फूल खिल जाते हैं, सारी निंदा को आत्मसात करने के लिए मन राजी हो जाता है ! और इतना ही नहीं, जब आप यही निंदा दूसरे को सुनाते हैं, क्योंकि ज्यादा देर आप रुक नहीं सकते। घड़ी, आधा घड़ी बहुत है। आप भागेंगे किसी को बताने को। क्योंकि निंदा का रस ही ऐसा है। वह हिंसा है। और अहिंसक दिखाई पड़ने वाली हिंसा है। 
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किसी को छुरा मारो अदालत में, पकड़े जाओगे। लेकिन निंदा मारो, तो कोई पकड़ने वाला नहीं है। कोई कारण नहीं है, कोई झंझट नहीं है। हिंसा भी हो जाती है साध्य, रस भी आ जाता है तोड्ने का, और कोई नुकसान भी कहीं अपने लिए होता नहीं। भागोगे जल्दी। और खयाल करना, कि जितनी निंदा पहले आदमी ने की थी, उससे दुगुनी करके तुम दूसरे को सुना रहे हो। अगर उसने पचास कहा था, तो तुमने सौ संख्या कर ली है। तुम्हें खयाल भी नहीं आएगा कि तुमने कब यह सौ कर ली है। निंदा का रस इतना गहरा है कि आदमी उसे बढ़ाए चला जाता है।
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लेकिन कोई तुमसे प्रशंसा करे किसी की, तुमसे नहीं सहा जाता फिर, तुम्हारा हृदय बिलकुल बंद हो जाता है, द्वार दरवाजे सख्ती से बंद हो जाते हैं। और तुम जानते हो कि यह बात गलत है, यह प्रशंसा हो नहीं सकती, यह आदमी इस योग्य हो नहीं सकता। तुम तर्क करोगे, तुम दलील करोगे, तुम सब तरह के उपाय करोगे, इसके पहले कि तुम मानो कि यह सच है। और तुम जरूर कुछ न कुछ खोज लोगे, जिससे यह सिद्ध हो जाए कि यह सच नहीं है। और तुम आश्वस्त हो जाओगे कि नहीं, यह बात सच नहीं थी। और यह कहने तुम किसी से भी न जाओगे, कि यह प्रशंसा की बात तुम किसी से कहो। यह तुम्हारा जीवन के प्रति असम्मान है और मृत्यु के प्रति तुम्हारा सम्मान है।
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अखबार में अगर कुछ हिंसा न हुई हो, कहीं कोई आगजनी न हुई हो, कहीं कोई लूटपाट न हुई हो, कोई डाका न पड़ा हो, कोई युद्ध न हुआ हो, कहीं बम न गिरे हों, तो तुम अखबार ऐसा पटक कर कहते हो कि आज तो कोई खबर ही नहीं है ! क्या तुम इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे ? क्या तुम सुबह—सुबह उठ कर यही अपेक्षा कर रहे थे कि कहीं यह हो ? कोई समाचार ही नहीं है। तुम्हें लगता है कि अखबार में जो दो आने खर्च किए, वे व्यर्थ गए। तुम्हारे दो आने के पीछे तुम क्या चाह रहे थे, इसका तुमने कुछ सोच—विचार किया ? तुम्हारे दो आने की सार्थकता का कितना मूल्य तुम लेना चाहते हो जगत से ?
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अखबार भी तुम्हारे लिए ही छपते हैं। इसलिए अखबार वाले भी अच्छी खबर नहीं छापते। उसे कोई पढ़ने वाला नहीं है, उसमें कोई सेन्सेशन नहीं है, उसमें कोई उत्तेजना नहीं है। अखबार वाले भी वही छापते हैं, जो तुम चाहते हो। वहीं खोजते हैं, जो तुम चाहते हो। दुनिया में जो भी कचरा और गंदा और व्यर्थ कुछ हो, उस सबको इकट्ठा कर लाते हैं। तुम प्रफुल्लित होते हो सुबह से, तुम्हारा हृदय बडा आनंदित होता है। तुम अखबार से जो इकट्ठा कर लेते हो, दिन भर फिर उसका प्रचार करते हो। तुम्हारा ज्ञान अखबार से ज्यादा नहीं है, फिर तुम उसी को दोहराते हो
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पर कभी यह खयाल किया कि तुम्हारा रस क्या है ? लोग डिटेक्टिव कहानियां पढ़ते हैं। क्यों ? क्यों जासूसी उपन्यास पढ़ते हैं ? क्यों जा कर हत्या और युद्ध की फिल्में देखते हैं ? अगर रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों, तो तुम हजार काम रोक कर खड़े हो कर देखोगे। हो सकता है तुम्हारी मां मर रही हो और तुम दवा लेने जा रहे हो। लेकिन फिर तुम्हारे पैर आगे न बढ़ेंगे। तुम कहोगे कि मां तो थोड़ी देर रुक भी सकती है, ऐसी कोई जल्दी नहीं है। बाकी यह जो दो आदमी लड़ रहे हैं, पता नहीं, क्या से क्या हो जाए ? और अगर दो आदमी लड़ते रहें और कुछ से कुछ न हो, तो थोड़ी देर में तुम वहां से निराश हटते हो कि कुछ भी न हुआ।
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इसलिए मैं कह रहा हूं इसे तुम निरीक्षण करना। इससे तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारा कोण क्या है जीवन को देखने का ? तुम चाहते क्या हो ? तुम्हारी क्या है मनोदशा ? इसको तुम पहचानना और तब इसे बदलना। तब देखना जहां—जहां तुम्हें लगे कि मृत्यु, हिंसा और विध्वंस के प्रति तुम्हारा रस है, उसे हटाना। और जीवन के प्रति बढ़ाना। अच्छा हो कि जब कली फूल बन रही हो, तब तुम रुक जाना। घड़ी भर वहां बैठ कर ध्यान कर लेना उस फूल बनती कली पर, क्योंकि वहां जीवन खिल रहा है। अच्छा हो कि कोई बच्चा जहां खेल रहा हो, हंस रहा हो, नाच रहा हो, वहां घड़ी भर तुम रुक जाना।
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दो आदमी छुरा ले कर लड़ रहे हों, वहां रुकने से क्या प्रयोजन है ? और तुम्हें शायद पता न हो और तुमने कभी सोचा भी न हो कि वे दो आदमी जो छुरा मार रहे हैं एक—दूसरे को, उसमें तुम्हारा हाथ हो सकता है। क्योंकि तुम ध्यान देते हो। अगर भीड़ इकट्ठी न हो तो लड़ने वालों का रस भी चला जाता है। अगर कोई देखने न आए, तो लड़ने वाले भी सोचते हैं कि बेकार है; फिर देखेंगे, फिर कभी। जब भीड़ इकट्ठी हो जाती है तो लड़ने वालों को भी रस आ जाता है। जितनी भीड़ बढ़ती जाती है, उतना उनका जोश गरम हो जाता है, उतना अहंकार और प्रतिष्ठा का सवाल हो जाता है।
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इसलिए तुम यह मत सोचना कि तुम खड़े थे तो तुम भागीदार नहीं थे, तुम्हारी आंखों ने भी हिंसा में भाग लिया। और वह जो छुरा भोंका गया है, अगर दुनिया में कोई सच में अनूठी अदालत हो, तो उसमें छुरा मारने वाला ही नहीं, तुम भी पकड़े जाओगे, क्योंकि तुम भी वहां खड़े थे। तुम क्यों खड़े थे ? तुम्हारे खड़े होने से सहारा मिल सकता है। तुम्हारे खड़े होने से उत्तेजना मिल सकती है। तुम्हारे खड़े होने से वह हो सकता है, जो न हुआ होता।
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पर अपनी उत्सुकता को खोजो, और अपनी उत्सुकता को जीवन की तरफ ले जाओ। और जहां भी तुम्हें जीवन दिखाई पडे, वहां तुम सम्मान से भर जाना। वहां तुम अहोभाव से भर जाना। और तुमसे जीवन के लिए जो कुछ बन सके, तुम करना। अगर ऐसा तुम्हारा भाव हो तो तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी हजार चिंताएं खो गईं, क्योंकि वे तुम्हारी रुग्ण—वृत्ति से पैदा होती हैं। तुम्हारे हजार रोग खो गए, क्योंकि तुम्हारे रोग, तुम विध्वंस की भावना से भरते थे। तुम्हारे बहुत से घाव मिट गए, क्योंकि उन घावों को तुम दूसरे को दुख पहुंचा—पहुंचा कर खुद भी अपने को दुख पहुंचाते थे और हरा करते थे।
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इस जगत में केवल वही आदमी आनंद को उपलब्ध हो सकता है, जो अपनी तरफ से, जहां भी आनंद घटित होता हो, उस आनंद से आनंदित होता है। लेकिन जब तुम किसी को सुखी देखते हो, तो तुम दुखी होते हो। तुम्हारी पूरी चिंता यह हो जाती है कि इस व्यक्ति को दुखी कैसे किया जाए। जान कर शायद तुम ऐसा न भी करते हो, लेकिन अनजाने यह चलता है कि तुम किसी को सुखी नहीं देख पाते। 
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जब तुम किसी को दुखी देखते हो, तब तुम्हारे पैरों में थिरकन आ जाती है। तब तुम बड़ी सहानुभूति प्रकट करते हो। और शायद तुम सोचते हो कि तुम दुखियों के बड़े साथी हो, क्योंकि कितनी सहानुभूति प्रकट करते हो। लेकिन एक बात ध्यान रखना कि अगर तुम दूसरे के सुख में सुखी नहीं होते, तो तुम्हारा दूसरे के दुख में दुखी होना झूठा है। यह हो ही नहीं सकता। जब तुम दूसरे के सुख में सुखी नहीं होते, तो तुम दूसरे के दुख में दुखी नहीं हो सकते।
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जब तुम दूसरे के सुख में दुखी होते हो, तो खोज करना अपने भीतर, तुम दूसरे के दुख में जरूर सुखी होते होंगे। क्योंकि यह तो सीधा गणित है। इस गणित से विपरीत नहीं होता। तुम्हारी सहानुभूति दूसरे के लिए नहीं है, तुम्हारी सहानुभूति में तुम मजा लेते हो। दूसरा नीचे पड़ गया है आज, उसका पैर छिलके से फिसल गया है और जमीन पर चारों खाने चित्त पड़ा है। तुम्हारा चित्त बड़ा प्रसन्न है कि तुम नहीं गिरे, कोई और गिर गया है। 
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अब तुम बड़ी शिष्टता और सभ्यता दिखला रहे हो, बड़ी सहानुभूति— उठा कर झाड रहे हो, उस आदमी के वस्त्रों को। लेकिन तुम्हारा हृदय प्रसन्न हो रहा है कि तुम नहीं गिरे, और यह पड़ोसी गिर गया। कितनी दफा तुमने इसे गिराना चाहा था, आज केले के छिलके ने वह काम कर दिया है। तुम जब किसी के दुख में दुख प्रकट करने जाते हो, तब जरा अपने भीतर देखना कि तुम सुखी तो नहीं हो रहे हो..
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ओशो¬साधनसूत्र

= ११७ =

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*आत्म चेतन कीजिए, प्रेम रस पीवै ।*
*दादू भूलै देह गुण, ऐसैं जन जीवै ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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हेरिगेल एक जर्मन विचारक जापान में था तीन वर्षों तक। एक फकीर के पास एक अजीब-सी बात सीख रहा था। सीखने गया था ध्यान, और उस फकीर ने सीखना शुरू करवाया धनुर्विद्या का। हेरिगेल ने एक-दो दफे कहा भी कि मैं ध्यान सीखने जर्मनी से आया हूं और मुझे धनुर्विद्या से कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन उस फकीर ने कहा कि चुप ! ज्यादा बातचीत नहीं। हम ध्यान ही सिखाते हैं। हम ध्यान ही सिखाते हैं।
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दो-चार दिन, आठ दिन, हेरिगेल का पाश्चात्य मन सोचने लगा, भाग जाऊं। किस तरह के आदमी के चक्कर में पड़ गया ! लेकिन एक आकर्षण रोकता भी था। उस आदमी की आंखों में कुछ कहता था कि वह कुछ जानता जरूर है। उसके उठने-बैठने में भनक मिलती थी कि वह कुछ जानता जरूर है। रात सोया भी पड़ा रहता और हेरिगेल उसे देखता, तो उसे लगता कि यह आदमी और लोगों जैसा नहीं सो रहा है। इसके सोने में भी कुछ भेद है ! तो भाग भी न सके, और कभी पूछने की हिम्मत जुटाए, तो वह फकीर होंठ पर अंगुली रख देता कि पूछना नहीं। धनुर्विद्या सीखो।
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एक साल बीत गया। सोचा हेरिगेल ने कि ठीक है; अब कोई उपाय नहीं है। इस आदमी से जाया भी नहीं जा सकता; इससे भागा भी नहीं जा सकता। नहीं तो यह फिर जिंदगीभर पीछा करेगा, इसका स्मरण रहेगा कि उस आदमी के पास था जरूर कुछ, कोई हीरा भीतर था, जिसकी आभा उसके शरीर से भी चमकती थी। मगर कैसा पागल आदमी है कि मैं ध्यान सीखने आया हूं, वह धनुर्विद्या सिखा रहा है ! तो सोचा कि सीख ही लो, तो झंझट मिटे।
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सालभर उसने अथक मेहनत की और वह कुशल धनुर्धर हो गया। उसके निशान सौ प्रतिशत ठीक लगने लगे। उसने एक दिन कहा कि अब तो मेरे निशान भी बिलकुल ठीक लगने लगे। अब मैं धनुर्विद्या भी सीख गया। अब वह ध्यान के संबंध में कुछ पूछ सकता हूं ?
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उसके गुरु ने कहा कि अभी धनुर्विद्या कहां सीखे ? निशान ठीक लगने लगा, लेकिन असली बात नहीं आई। उसने कहा कि निशान ही तो असली बात है ! अब मैं सौ प्रतिशत ठीक निशाना मारता हूं। एक भी चूक नहीं होती। अब और क्या सीखने को बचा ? उसके गुरु ने कहा कि नहीं महाशय ! निशाने से कुछ लेना-देना नहीं है। जब तक तुम तीर चलाते वक्त मौजूद रहते हो, तब तक मैं न मानूंगा कि तुम धनुर्विद्या सीख गए। ऐसे चलाओ तीर, जैसे कि तुम नहीं हो।
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उसने कहा कि अब बहुत कठिन हो गया। अभी तो हम आशा रखते थे कि साल छः महीने में सीख जाएंगे, अब यह बहुत कठिन हो गया। यह कैसे हो सकता है कि मैं न रहूं ! तो तीर चलाएगा कौन ? और आप कहते हो कि तुम न रहो और तीर चले ! एब्सर्ड है। तर्कयुक्त नहीं है। कोई भी गणित को थोड़ा समझने वाला, तर्क को थोड़ा समझने वाला कहेगा कि पागल के पास पहुंच गए। अभी भी भाग जाना चाहिए।
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लेकिन सालभर उस आदमी के पास रहकर भागना निश्चित और मुश्किल हो गया, क्योंकि आठ दिन बाद ही भागना मुश्किल था। सालभर में तो उस आदमी की न मालूम कितनी प्रतिमाएं हेरिगेल के हृदय में अंकित हो गईं। सालभर में तो वह आदमी उसके प्राणों के पोर-पोर तक प्रवेश कर गया। भरोसा करना ही पड़ेगा, और आदमी बिलकुल पागल मालूम होता है।
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उस फकीर ने कहा, तू जल्दी मत कर। जरूर वह वक्त आ जाएगा, जब तू मौजूद नहीं रहेगा और तीर चलेगा। और जिस दिन तू मौजूद नहीं है और तीर चलता है, उसी दिन ध्यान आ जाएगा। क्योंकि स्वयं को पूरी तरह अनुपस्थित कर लेने की कला ही ध्यान है, टु बी एब्सेंट टोटली।
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और जिस क्षण कोई स्वयं को पूरी तरह अनुपस्थित कर लेता है, परमात्मा प्रवेश कर जाता है। परमात्मा के लिए भी जगह तो खाली करिएगा अपने घर के भीतर ! आप इतने भरे हुए हैं कि परमात्मा आना भी चाहे, तो कहां से आए ? उसको ठहरने लायक जगह भी भीतर चाहिए; उतनी जगह भी भीतर नहीं है ! हम इतने ज्यादा अपने भीतर हैं, टू मच, कि वहां कोई रत्तीभर भी स्थान नहीं है, स्पेस नहीं है।
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उस फकीर ने कहा, तू जल्दी मत कर। तू कुछ वक्त लगा और यह तीर निशान पर लगाने की बात न कर। निशान न भी लगा, तो चलेगा। उस तरफ निशान चूक जाए, चूक जाए; इस तरफ निशान न चूके। उसने कहा, इस तरफ के निशान का मतलब ? कि इस तरफ करने वाला मौजूद न रहे, खाली हो जाए। तीर उठे और चले, और तू न रहे। एक साल और उसने मेहनत की। पागलपन साफ मालूम होने लगा। रोज उठाता धनुष और रोज गुरु कहता कि नहीं; अभी वह बात नहीं आई। निशान ठीक लगते जाते, और वह बात न आती।
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एक साल बीत गया। भागना चाहा, लेकिन भागना और मुश्किल हो गया। वह आदमी और भरोसे के योग्य मालूम होने लगा। इन दो सालों में कभी उस आदमी की आंख में रंचमात्र चिंता न देखी। कभी उसे विचलित होते न देखा। सुख में, दुख में, सब स्थितियों में उस आदमी को समान पाया। वर्षा हो कि धूप, रात हो कि दिन, पाया कि वह आदमी कोई अडिग स्थान पर खड़ा है, जहां कोई कंपन नहीं आता।
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भागना मुश्किल है। लेकिन बात पागलपन की हुई जाती है। दो साल खराब हो गए! गुरु से फिर एक दिन कहा कि दो साल बीत गए! उसके गुरु ने कहा कि समय का खयाल जब तक तू रखेगा, तब तक खुद को भूलना बहुत मुश्किल है। समय का जरा खयाल छोड़। समय बाधा है ध्यान में। असल में समय क्या है ? हमारा अधैर्य समय है। जो टाइम कांशसनेस है, वह समय का जो बोध है, वह अधैर्य के कारण है।
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इसलिए जो समाज जितना अधैर्यवान हो जाता है, उतना टाइम कांशस हो जाता है। जो समाज जितना धीरज से बहता है, उतना समय का बोध नहीं होता। अभी पश्चिम बहुत टाइम कांशस हो गया है। एक-एक सेकेंड, एक-एक सेकेंड आदमी बचा रहा है; बिना यह जाने कि बचाकर करिएगा क्या ? बचाकर करिएगा क्या ? माना कि एक सेकेंड आपने बचा लिया और कार एक सौ बीस मील की रफ्तार से चलाई और जान जोखम में डाली और दो-चार सेकेंड आपने बचा लिए, फिर करिएगा क्या ? फिर उन दो-चार सेकेंड से और कार दौड़ाइएगा ! और करिएगा क्या ?
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लेकिन समय का बोध आता है भीतर के तनावग्रस्त चित्त से। इसलिए बड़े मजे की बात है कि आप जितने ज्यादा दुखी होंगे, समय उतना बड़ा मालूम पड़ेगा। घर में कोई मर रहा है और खाट के पास आप बैठे हैं, तब आपको पता चलेगा कि रात कितनी लंबी होती है। बारह घंटे की नहीं होती, बारह साल की हो जाती है। दुख का क्षण एकदम लंबा मालूम पड़ने लगता है, क्योंकि चित्त बहुत तनाव से भर जाता है।
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सुख का क्षण बिलकुल छोटा मालूम पड़ने लगता है। प्रियजन से मिले हैं और विदा का वक्त आ गया, और लगता है, अभी तो घड़ी भी नहीं बीती थी और जाने का समय आ गया ! समय बहुत छोटा हो जाता है। हेरिगेल का वह गुरु कहने लगा कि समय की बात बंद कर, नहीं तो ध्यान में कभी नहीं पहुंच पाएगा। ध्यान का अर्थ ही है, समय के बाहर निकल जाना।
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रुक गया। अब इस आदमी से भाग भी नहीं सकता। यही ट्रस्ट, श्रद्धा का मैं अर्थ कह रहा हूं आपसे। श्रद्धा का अर्थ है कि आदमी की बात भरोसे योग्य नहीं मालूम पड़ती, पर आदमी भरोसे योग्य मालूम पड़ता है। श्रद्धा का अर्थ है, बात भरोसे योग्य नहीं मालूम पड़ती, लेकिन आदमी भरोसे योग्य मालूम पड़ता है। बात तो ऐसी लगती है कि कुछ गड़बड़ है। लेकिन आदमी ऐसा लगता है कि इससे ठीक आदमी कहां मिलेगा ! तब श्रद्धा पैदा होती है।
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अब कृष्ण जो कह रहे हैं अर्जुन से, वह बात तो बिलकुल ऐसी लगती है कि जब कोई दुख विचलित न कर सकेगा, संसार से सब संसर्ग टूट जाएगा; पीड़ा-दुख, सबके पार उठ जाएगा मन। ऐसा मालूम तो नहीं पड़ता। जरा-सा कांटा चुभता है, तो भी संसर्ग टूटता नहीं मालूम पड़ता। इस विराट संसार से संसर्ग कैसे टूट जाएगा ? कैसे इसके पार हो जाएंगे दुख के ? दुख के पार होना असंभव मालूम पड़ता है। लेकिन कृष्ण आदमी भरोसे के मालूम पड़ते हैं। वे जो कह रहे हैं, जानकर ही कह रहे होंगे।
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हेरिगेल और रुक गया, एक साल और। लेकिन तीन साल ! उसके बच्चे, उसकी पत्नी वहां से पुकार करने लगे कि अब बहुत हो गया, तीन साल बहुत हो गए ध्यान के लिए ! वह भी जर्मन पत्नी थी, तीन साल रुकी। हिंदुस्तानी होती, तो तीन दिन मुश्किल था। तीन साल बहुत वक्त होता है। वह चिल्लाने लगी कि अब आ जाओ। अब यह कब तक और ! अभी वह लिखता जा रहा है कि अभी तो शुरुआत भी नहीं हुई। गुरु कहता है कि नाट ईवेन दि बिगनिंग, अभी तो शुरुआत भी नहीं हुई। और तू बुलाने के पीछे पड़ी है !
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आखिर जाना पड़ा। तो उसने एक दिन गुरु को कहा कि अब मैं लौट जाता हूं, यह जानते हुए कि आप जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे, क्योंकि आप इतने ठीक हैं। यह जानते हुए कि इन तीन वर्षों में बिना जाने भी मेरे भीतर क्रांति घटित हो गई है। और अभी आप कहते हैं कि दिस इज़ नाट ईवेन दि बिगनिंग, यह अभी शुरुआत भी नहीं है। और मैं तो इतने आनंद से भर गया हूं।
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अभी शुरुआत भी नहीं है, तो मैं सोचता हूं कि जब अंत होता होगा, तो किस परम आनंद को उपलब्ध होते होंगे ! लेकिन दुखी हूं कि मैं आपको तृप्त न कर पाया; मैं असफल जा रहा हूं। मैं इस तरह तीर न चला पाया कि मैं न मौजूद रहूं और तीर चल जाए। तो मैं कल चला जाता हूं। गुरु ने कहा कि तुम चले जाओ। जाने के पहले कल सुबह मुझसे मिलते जाना।
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दोपहर उसका हवाई जहाज जाएगा, वह सुबह गुरु के पास पुनः गया। आज कोई उसे तीर चलाना नहीं है। वह अपनी प्रत्यंचा, अपने तीर, सब घर पर ही फेंक गया है। आज चलाना नहीं है; आज तो सिर्फ गुरु से विदा ले लेनी है। वह जाकर बैठ गया है। गुरु किसी दूसरे शिष्य को तीर चलाना सिखा रहा है। बेंच पर वह बैठ गया है। गुरु ने तीर उठाया है, प्रत्यंचा पर चढ़ाया है, तीर चला। और हेरिगेल ने पहली दफा देखा कि गुरु मौजूद नहीं है, तीर चल रहा है।
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मौजूद नहीं है का मतलब यह नहीं कि वहां नहीं है, वहां है। लेकिन उसके हाव-भाव में कहीं भी कोई एफर्ट, कहीं कोई प्रयास, ऐसा नहीं लगता कि हाथ तीर को उठा रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि तीर हाथ को उठवा रहा है। ऐसा नहीं लगता कि प्रत्यंचा को हाथ खींच रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता है, चूंकि प्रत्यंचा खिंच रही है, इसलिए हाथ खिंच रहे हैं। तीर चल गया, ऐसा नहीं लगता कि उसने किसी निशाने के लिए भेजा है, बल्कि ऐसा लगता है कि निशाने ने तीर को अपनी तरफ खींच लिया है।
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उठा। दौड़कर गुरु के चरणों में गिर पड़ा। हाथ से प्रत्यंचा ले ली; तीर उठाया और चलाया। गुरु ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा कि आज ! आज तू जीत गया। आज तूने इस तरह तीर चलाया कि तू मौजूद नहीं है। यही ध्यान का क्षण है। हेरिगेल ने कहा, लेकिन आज तक यह क्यों न हो पाया ? तो उसके गुरु ने कहा, क्योंकि तू जल्दी में था। आज तू कोई जल्दी में नहीं था। क्योंकि तू करना चाहता था। आज करने का कोई सवाल न था। क्योंकि अब तक तू चाहता था, सफल हो जाऊं। आज सफलता-असफलता की कोई बात न थी। तू बैठा हुआ था, जस्ट वेटिंग, सिर्फ प्रतीक्षा कर रहा था।
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अथक श्रम का अर्थ है, प्रतीक्षा की अनंत क्षमता। कब घटना घटेगी, नहीं कहा जा सकता। कब घटेगी? क्षण में घट सकती है; और अनंत जन्मों में न घटे। कोई प्रेडिक्टेबल नहीं है मामला। कोई घोषणा नहीं कर सकता कि इतने दिन में घट जाएगी। और जिस बात की घोषणा की जा सके, जानना कि वह क्षुद्र है और आदमी की घोषणाओं के भीतर है। परमात्मा आदमी की घोषणाओं के बाहर है।
ओशो

*बलराम के लिए चिन्ता । श्री हरिवल्लभ वसु*

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*दादू सोइ जन साधु सिद्ध सो, सोइ सकल सिरमौर ।*
*जिहिं के हिरदै हरि बसै, दूजा नाहीं और ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १३०~सर्वधर्म-समन्वय*
*(१)बलराम के लिए चिन्ता । श्री हरिवल्लभ वसु*
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श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुरवाले मकान में चिकित्सा के लिए भक्तों के साथ ठहरे हुए हैं । आज शनिवार है, आश्विन की कृष्णा अष्टमी, ३१ अक्टूबर १८८५ । दिन के नौ बजे का समय होगा । यहाँ दिन-रात भक्तगण रहा करते हैं, श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए । अभी किसी ने संसार का त्याग नहीं किया है ।
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बलराम सपरिवार श्रीरामकृष्ण के सेवक हैं । उन्होंने जिस वंश में जन्म लिया है, वह बड़ा ही भक्त-वंश है । इनके पिता वृद्ध होकर अब श्रीवृन्दावन में अपने ही प्रतिष्ठित श्रीश्यामसुन्दर कुँज में रहा करते हैं । उनके चचेरे भाई श्रीयुत हरिवल्लभ बसु और घर के दूसरे सब लोग वैष्णव हैं ।
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हरिवल्लभ कटक के सब से बड़े वकील हैं । उन्होंने जब यह सुना कि बलराम श्रीरामकृष्णदेव के पास आया-जाया करते हैं और विशेषकर स्त्रियों को ले जाते हैं, तब वे बहुत नाराज हुए । उनसे मिलने पर बलराम ने कहा था, ‘तुम पहले एक बार उनके दर्शन करो, फिर जो जी में आये मुझे कहना ।’
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अतएव आज हरिवल्लभ आये हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को बड़े भक्तिभाव से प्रणाम किया ।
श्रीरामकृष्ण - किस तरह बीमारी अच्छी होगी ? आपकी राय में क्या यह कोई कठिन बीमारी है ?
हरिवल्लभ - जी, यह तो डाक्टर ही कह सकेंगे ।
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श्रीरामकृष्ण – स्त्रियाँ जब मेरे पैरों की धूलि लेती हैं तब यही सोचता हूँ कि भीतर तो वे ही हैं, वे उन्हीं को प्रणाम कर रही हैं । इसी दृष्टि से मैं देखता हूँ ।
हरिवल्लभ - आप साधु हैं, आपको सब लोग प्रणाम करेंगे, इसमें दोष क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, वह हो सकता था अगर ध्रुव, प्रह्लाद, नारद, कपिल, ये कोई होते; पर मैं क्या हूँ ? अच्छा आप फिर आइयेगा ।
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हरिवल्लभ - जी, हम लोग आप ही खिंचकर आयेंगे, आप कहते क्यों है ?
हरिवल्लभ बिदा होंगे, प्रणाम कर रहे हैं । पैरों की धूलि लेने जा रहे हैं, श्रीरामकृष्ण ने पैर हटा लिये । परन्तु हरिवल्लभ ने छोड़ा नहीं, जबरदस्ती उन्होंने पैरों की धूलि ली ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, गुरुदेव का अंग(३) ~ १.२५*

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*सत गुरु किया फेरि कर, मन का औरै रूप ।*
*दादू पंचों पलटि कर, कैसे भये अनूप ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी गरीबदासजी के भेंट सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
गुरुदेव का अंग(३)
सीर१ सु सतगुरु में सब शिष्यों को,
नीति की बात कही निरताई२ ।
साझो दियो गुरु देव सु ज्ञान में,
भाव रु भक्ति की खानि बँटाई३ ॥
दृष्टि सो ज्ञान दियो दत४ दीरघ,
ज्योति में ज्योति लै५ ज्योति जगाई ।
हो६ रज्जब भेल्यो७ सुभाग में भाग तो,
छाजन८ भोजन की कहा भाई ॥१॥२५॥
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सदगुरु संबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं -
सदगुरु में सभी शिष्यों का सांझा१ है विचार२ करके यह नीति की बात कही है । गुरुदेव ने अपने ज्ञान का साझा दिया है ।
और सब भाव व भक्ति की खानि वितरण३ की है ।
अपनी ज्ञान दृष्टि के समान ही हमें महान ज्ञान४ का दान दिया है । ब्रह्म ज्योति में आत्म ज्योति को लय५ करके ब्रह्म ज्ञान रूप ज्योति जगाई है ।
हे६ भाई ! हमारा भाग्य तो गुरुदेव के सु भाग्य में मिल७ गया है अब वस्त्र८ भोजन की क्या बात है ? ये तो प्रारब्धानुसार आप ही मिलेगा ।
(क्रमशः)

*उतपति संसै परसन कौ अंग*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*एक सबद सब कुछ किया, ऐसो समरथ सोइ ।*
*आगै पीछै वौ करै, जे बलहीना होइ ॥*
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*उतपति संसै परसन कौ अंग ॥*
इकलस इकरस साहिब कहिये, को गुण ब्यापै नाहीं ।
तिस साहिब कै कहौ स्वामीजी, माया थी किस ठाँई ॥४॥
वह परमात्मा एकलस = अकेला = अद्वितीय और एकरस = सदा सर्वदा तीनों कालों में एक जैसा रहने वाला है । उसको सत-रज-तम नामक तीनों गुणों में से न तो कोई पृथक-पृथक ही और न समेकित रूप में ही व्यापते हैं = आच्छादित करते हैं । ऐसे परमात्मा के किस स्थान में = किस अंग में यह माया विद्यमान थी जिससे संसार उत्पन्न हुआ और जो लोगों को विमोहित करती है ॥४॥
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*उत्तर ॥ आदि सबद बिस्तार कौ अंग*
बषनां तिल बैसंदरा, पेट बडौ परिमाण ।
येक सब्द सौं सब हुवा, माय मांड मंडाण ॥५॥
बषनांजी कहते हैं, तिल के बराबर की अग्नि का भी पेट बहुत बड़ा होता है । अर्थात् अग्नि का छोटा सा कण ही किसी भी परिमाण के पदार्थ को जलाने में पूर्ण समर्थ होता है ।
इसी प्रकार एक शब्द ॐ जो सर्वाधिक छोटा और अकेला है, से ही माया, माँड = शरीर और मंडाण = संसार का निर्माण हुआ है । कहने का आशय यह है कि परब्रहम-परमात्मा-स्वरूप शब्द ही संसार का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है ।
दादूजी ने कहा है~ 
“एक सबद सब कुछ किया, ऐसो समरथ सोइ ।
आगै पीछै वौ करै, जे बलहीना होइ” ॥२१/१०॥
बेद कतेब साध सब बूझ्या, करि करि जूवा जूवा ।
बषनां नैं दादू यौं कहिया, साहिब तैं सब हूवा ॥६॥
बषनांजी कहते हैं, मैंने अलग-अलग करके वेदज्ञाता पंडितों से, कतेब = कुरानज्ञाताओं से तथा साध = स्वात्मसाक्षात्कारी ब्रह्मनिष्ठ महात्माओं से ऊपर कहा गया प्रश्न पूछा । गुरुमहाराज दादूजी ने उत्तर बताते हुए समझाया कि यह सब कुछ एक परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं ॥६॥
इति आदि सबद निरनैं कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ९८॥साषी १७६॥
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #४१६

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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४१६)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४१६. विनती । वीर विक्रम ताल*
*मनमोहन हो !*
*कठिन विरह की पीर, सुन्दर दरस दिखाइये ॥टेक॥*
*सुनहु न दीन दयाल, तव मुख बैन सुनाइये ॥१॥*
*करुणामय कृपाल, सकल शिरोमणि आइये ॥२॥*
*मम जीवन प्राण अधार, अविनाशी उर लाइये ॥३॥*
*इब हरि दरसन देहु, दादू प्रेम बढ़ाइये ॥४॥*
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हे मेरे मन को मोहने वाले प्रभो ! यह विरहव्यथा अति ही कठिन हैं । मेरे लिये तो असह्य हो रही हैं । इसलिये आपको अपना दिव्यदर्शन देना चाहिये । हे दयालो ! मेरी प्रार्थना सुनकर कृपा करके अपनी मधुर वाणी सुनाइये ।
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हे सर्व शिरोमणि करुणामय दयालो हे मेरे जीवन और प्राणों के आधार अविनाशिन् स्वामिन् ! शीघ्रदर्शन दीजिये और अपने हृदय का आलिंगन करवा कर प्रेमरूपी अमृत पिलाइये और मुझे अपना दास बनालो ।
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यामुनाचार्यकृतस्तोत्र में लिखा है कि –
हे नाथ ! मैं आपके सामने झूंठ नहीं बोलता सत्य ही निवेदन करता हूँ मेरी एक बात सुन लीजिये । यदि आप मेरे पर दया नहीं करेंगे तो मुझ से बढ़कर दया का पात्र आपको मिलना कठिन हैं । हे भगवन् आपके सिवा मेरा कोई स्वामी नहीं ।
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विधाता के जोड़े हुए इस सम्बन्ध को निभाइये ! तोड़ो मत । हे भगवन् ! जिस प्रकार आपने स्वयं ही मुझे सदा रहने वाली इस भवदीयता(मैं आपका हूँ) को मुझे बता दिया उसी तरह कृपा करके आपकी अनन्य भक्ति मुझे दीजिये ।
(क्रमशः)

= ११६ =

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*हस्ती हय बर धन देख कर, फूल्यो अंग न माइ ।*
*भेरि दमामा एक दिन, सब ही छाड़े जाइ ॥*
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*साभार ~ @Bhakti Kathayen भक्ति कथायें*
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*(((( सत्य से साक्षात्कार ))))*
*आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है।*
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एक राजा था, बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा अपनी शैया पर लेेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं। कितना विशाल है मेरा परिवार, कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर, कितनी मजबूत है मेरी सेना, कितना बड़ा है मेरा राजकोष।
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ओह ! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात? मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी। मेरा हर वचन आदेश होता है। राजा कवि हृदय था और संस्कृृत का विद्वान था। अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी।
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जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था..
चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला:
सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या:
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:
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मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है। लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था। संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया।
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चोर भी संस्कृत भाषा का विज्ञ और आशु कवि था। समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था। राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, यह भी वह जान गया.... लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है।
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अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं, चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी... 
सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥ 
राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत : किस पर गर्व कर रहे हो ? चोर की इस एक पंक्ति ने राजा की आंखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई।
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वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा.. ऐसी ज्ञान की बात किसने कही ? कैसे कही ? उसने आवाज दी, पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो। चोर सामने आ कर खड़ा हुआ। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला... हे राजन ! मैं आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं।
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मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन ! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें। राजा ने कहा, तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता.. यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया। गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो।
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चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा.. आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम्.. इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है। तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं।
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चोर बोला, राजन ! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। राजा और चोर दोनों संन्यासी बन गए। एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन-वैभव, भोग-विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा, दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा। जय जय श्री राधे
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आज की तिथि : चैत्र शुक्ल पक्ष एकादशी, विक्रम संवत 2081
साभार :- BagvanBhakti
Bhakti Kathayen भक्ति कथायें
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग २९/३२*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग २९/३२*
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इन मंहि जांनै जान सौं, नौंमी१० दसमी११ भेद ।
कहि जगजीवन बरत१२ हरि, अलख इग्यारस१३ बेद ॥२९॥
(१०. नौंमी=अक्षय नवमी तिथि ) (११. दसमी=विजयदशमी तिथि)
(१२-१३. बरत....इग्यारस=एकादसी व्रत)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इसमें विद्वजन ही नवमी अर्थात त्याग की पूर्णता, अक्षयता व दशमी इन्द्रिय निग्रह व इन आशाओं पर विजय को वे ही जानते हैं जो ग्यारस रुपी मोक्ष के इच्छुक हैं ।
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कहि जगजीवन द्वादसी, दिनकर किरनि१४ प्रकास ।
गोरख गति लांघै सकल, मधि घर रांम निवास ॥३०॥
(१४. दिनकर=किरनि=सूर्य की किरणें)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि द्वादशी में ज्ञान किरण आती है व ज्ञानोदय होता है । उस अवधि में गोरक्ष नाथ जैसे उच्च कोटि के संत सब पार करके प्रभु के सनिध्य में उनके घर को प्राप्त होते हैं ।
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जठर अगनि षट अक्खरा१५, इनमैं उभै बिचारि ।
कहि जगजीवन रांम रमि, तन मन लीजै तारि ॥३१॥
(१५. षट अक्खरा=षडक्षर मन्त्र)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि क्षुधा आर्त या जठर अग्नि में छ: अक्षर हैं। जिसे शांत करने के लिये जीव भागता दौड़ता है यदि वह दो अक्षर के राम पर भरोसा कर ले तो तन मन दोनों भव से पार हो जायें ।
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बार न छांणै१ वार मधि, रांम न सुमरै जोग२ ।
कहि जगजीवन नांउं तजि, भूलि रहै भ्रम भोग ॥३२॥
(१. छांणैं=खोजै) {२. जोग=योग(विशेष अवसर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु स्मरण न प्रकट है न गुप्त है न किसी विशेष दिन वार के लिये तय है । स्मरण का कोइ मुहूर्त नहीं है । जो इस प्रकार स्मरण में बहाने करते हैं । वे बहाने कर भोग विलास में लालायित रहते हैं ।
(क्रमशः)

*व्यास गुसांई विमल चित*

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*तहँ बिन बैना बाजैं तूर,*
*विकसै कँवल चंद अरु सूर ॥*
*पूरण ब्रह्म परम प्रकाश,*
*तहँ निज देखै दादू दास ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*छप्पय-*
*व्यास गुसांई विमल चित, बांना से अतिशय विनैः१ ॥*
*चौबीसौं अवतार, अधिक कर साधु विशेखे ।*
*सप्त द्वीप मधि संत, तिते सब गुरु करि लेखे ॥*
*बन्यो महत समाज, निरख तहँ नौगुन२ तोर्यो ।*
*नूपर गुह्यो३ निशंक, कान्ह के चरण चहोर्यो४ ॥*
*राघव रीति बड़ेन की, प्रण तांई दें शीशनै५ ।*
*व्यास गुसांई विमल चित, बांना से अतिशय विनै ॥२८९॥*
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पवित्र चित्त वाले व्यास गोस्वामीजी संत भेष से अतिशय विनीत१ रहते थे । भगवान् के चौबीस चौबीस अवतारों से भी विशेष संतों को मानते थे । सातों द्वीपों में जितने संत हैं, उन सबको गुरु समझकर देखे थे ।
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एक समय शरद् पूर्णिमा के दिन रास के समय कृष्ण प्रियाजी का नूपुर टूटा हुआ देखकर, उस महान् समाज में आपने निशंक भाव से अपनी नौगुणी-जनेऊ२ तोड़कर नूपर गूंथ३ कर चरण में बाँध४ दिया था और कहा था-"आज तक तो इस यज्ञोपवीत का भार ही ढोया था पर आज यह काम आया है ।"
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राघवदासजी कहते हैं- बड़े पुरुषों की रीति ऐसी ही होती है, वे अपने प्रण की रक्षा के लिये शीश को५ भी दे देते हैं, लेश भी संकोच नहीं करते ॥२८९॥
(क्रमशः)

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

*श्रीराधाकृष्ण-तत्त्व । नित्य-लीला*

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*जैसा है तैसा नाम तुम्हारा, ज्यों है त्यों कह सांई ।*
*तूं आपै जाणै आपको, तहँ मेरी गम नांहि ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(६)श्रीराधाकृष्ण-तत्त्व । नित्य-लीला*
सन्ध्या हो गयी है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीपक जल रहा है । कई भक्त जो श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं, उसी कमरे में कुछ दूर पर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण का मन अन्तर्मुख हो रहा है, इस समय बातचीत बन्द है । कमरे में जो लोग हैं, वे भी ईश्वर की चिन्ता करते हुए मौन हो रहे हैं ।
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कुछ देर बाद नरेन्द्र अपने एक मित्र को साथ लेकर आये । नरेन्द्र ने कहा, "ये मेरे मित्र हैं, इन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है । ये 'किरणमयी' लिख रहे हैं ।" किरणमयी के लेखक ने प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण के साथ बातचीत करेंगे ।
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नरेन्द्र - इन्होंने राधाकृष्ण के सम्बन्ध में भी लिखा है ।
श्रीरामकृष्ण - (लेखक से) - क्यों जी, क्या लिखा है ? जरा कहो तो ।
लेखक - राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं, ओंकार के बिन्दुस्वरूप हैं । उसी राधाकृष्ण - परब्रह्म से महाविष्णु की सृष्टि हुई, महाविष्णु से पुरुष और प्रकृति, शिव और दुर्गा की ।
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श्रीरामकृष्ण – वाह ! नन्दघोष ने नित्यराधा को देखा था । प्रेम-राधा ने वृन्दावन में लीलाएँ की थीं, काम-राधा चन्द्रावली हैं ।
“काम-राधा और प्रेम-राधा । और भी बढ़ जाने पर हैं नित्य-राधा । प्याज के छिलके निकालते रहने पर पहले लाल छिलका निकलता है, फिर जो छिलके निकलते हैं उनमें ललाई नाम मात्र की रहती है, फिर बिलकुल सफेद छिलके निकलते हैं । ऐसा ही नित्य-राधा का स्वरूप है - वहाँ 'नेति नेति' का विचार रुक जाता है ।
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"नित्य-राधाकृष्ण, और लीला-राधाकृष्ण - जैसे सूर्य और उसकी किरणें । नित्य की तुलना सूर्य से की जा सकती है और लीला की, रश्मियों से ।
"शुद्ध भक्त कभी 'नित्य' में रहता है और कभी 'लीला' में । जिनकी नित्यता है, लीला भी उन्हीं की है । वे केवल एक ही हैं - दो या अनेक नहीं ।"
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लेखक - जी, वृन्दावन के कृष्ण और मथुरा के कृष्ण, इस तरह दो कृष्ण क्यों कहे जाते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - वह गोस्वामियों का मत है । पश्चिम के पण्डित लोग ऐसा नहीं कहते । उनके मत में कृष्ण एक ही है, राधा है ही नहीं । द्वारका के कृष्ण भी वैसे ही हैं ।
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लेखक - जी, राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं ।
श्रीरामकृष्ण – वाह ! परन्तु उनके द्वारा सब कुछ सम्भव है । वे ही निराकार हैं और वे ही साकार । वे ही स्वराट् हैं और वे ही विराट् । वे ही ब्रह्म हैं और वे ही शक्ति ।
“उनकी इति नहीं हो सकती - उनका अन्त नहीं है, उनमें सब कुछ सम्भव है...
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चील या गीध चाहे जितना ऊपर चढ़े, पर आकाश को उसकी पीठ कभी छू नहीं सकती । अगर पूछो कि ब्रह्म कैसा है, तो यह कहा नहीं जा सकता । साक्षात्कार होने पर भी मुख से नहीं कहा जाता । अगर कोई पूछे कि घी कैसा है, तो इसका उत्तर है कि घी घी के सदृश ही है । ब्रह्म की उपमा ब्रह्म ही है, और कोई उपमा नहीं ।
(क्रमशः)