सोमवार, 27 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १०


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*जैसे शुक नलिका न छाड़ि देत चंगुल तैं,* 
*जानैं काहू औरै मोहि बांधि लटकायौ है ।* 
*जैसैं कपि गुंजनि कौं ढ़ेर करि मांनै आगि,* 
*आगैं धरि तापै कछू शीत न गमायौ है ॥* 
*जैसैं कोऊ दिसा भूलि जातहु तौ पूरब कौं,* 
*उलटि अपूठौं फेरि पच्छिम कौ आयौ है ।* 
*तैसैं ही सुन्दर सब आप ही कौं भ्रम भयौ,* 
*आपु ही कौं भूलि करि आपु ही बंधायौ है ॥१०॥* 
जैसे कोई तोता नारियल में अपनी चौंच को उलझाकर उस को छोड़ नहीं पाता है; अपितु यह समझता है कि उस को यहाँ किसी अन्य ने बाँध कर लटका दिया है । 
जैसे कोई बन्दर गुंजासमूह को अग्नि समझ कर उससे अपना शरीर तापना चाहता है, परन्तु उससे उसको कुछ भी गर्मी प्राप्त नहीं होती । उसकी सर्दी(शीतता) दूर नहीं हो पाती । 
जैसे कोई दिग्भ्रांत मार्ग भटक कर पूर्व दिशा की ओर जाना चाहता हुआ पश्चिम दिशा में बहक जाता है । 
वैसे ही, *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस प्राणी का स्वयं उत्पन्न किया हुआ भ्रम उस को ही बाँध लेता है ॥१०॥ 
(क्रमशः)

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