मंगलवार, 26 मई 2015

= १८२ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
दादू पाणी धोवैं बावरे, मन का मैल न जाइ ।
मन निर्मल तब होइगा, जब हरि के गुण गाइ ॥ 
दादू काले थैं धोला भया, दिल दरिया में धोइ ।
मालिक सेती मिलि रह्या, सहजैं निर्मल होइ ॥ 
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साभार ~ चतुर्दिक अभ्युदय ~ 
बौद्ध ग्रन्थ सुत्तपिटक में संकलित थेरी गाथा में उन्ना नामक एक दासी जो अपने स्वामी के लिए प्रतिदिन सुबह नदी का पानी लेने जाती थी और एक ब्राह्मण जो प्रतिदिन नदी के जल में स्नान करने आता था, उन्ना की बातचीत से ये भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि बौद्ध धर्म में व्यर्थ के आडम्बरों एवं कर्मकांडों का कोई स्थान नही था... 
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ब्राह्मण के यह कहने पर कि वो बुराई को रोकने और अच्छाई को करने के लिए प्रतिदिन नदी में स्नान करने आता है क्योंकि नदी में पवित्र जल में स्नान करने से प्रत्येक बुरे कर्म से छुटकारा मिल जाता है... 
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उन्ना उससे कहती है कि उसे किसी ने यह कहकर मूर्ख बनाया है.. नदी में स्नान करने से कोई अपने पापों अथवा बुरे कामों से मुक्त नही हो जाता.. यदि ऐसा होता तो पानी में रहने वाले सारे मेढक, कछुए, मगर्मच्छा और सांप सभी स्वर्ग पहुँच चुके होते.. 
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इससे अच्छा तो यही है कि मनुष्य ऐसे काम(बुरे काम) ही न करे कि जिनके डर से उसे इतनी ठण्ड में नदी के जल में स्नान करने की आवश्यकता पड़े... उन्ना के इस कथन से महात्मा बुद्ध के इस उपदेश "अपनी मुक्ति अपने हाथ" का परिचय मिलता है...
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यदि मनुष्य बुरे कर्म करेगा ही नहीं तो उसे बुराई से मुक्त होने का उपाय भी नहीं ढूंढना पडेगा...

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