*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= स्मरण का अंग - २ =*
*दादू कहाँ था, गोरख, भरथरी, अनंत सिधों का मंत ।*
*परगट गोपीचन्द है, दत्त कहैं सब संत ॥११४॥*
*परगट गोपीचन्द है, दत्त कहैं सब संत ॥११४॥*
हे जिज्ञासुओं ! देखिए गोरखनाथ जी कहाँ हुए ? सुना जाता है कि गऊ के पेट से गोरखनाथ जी उत्पन्न हुए । परन्तु वे योग-बल से त्रिकाल में और तीनों लोकों में भगवद् भक्तों की परीक्षा करने वाले पारखी कहे जाते हैं । इसी प्रकार भरथरी जी, गोपीचन्द जी और दत्तात्रेय जी, ये सब संत प्रकट कहिए, अमर हैं । इसलिए सत्य-स्वरूप परमात्मा का दर्शन ही "मत" कहिए, अनन्त सिद्धों का सिद्धान्त है । अथवा इस सत्य-मार्ग का अनुकरण करके ही अनन्त सिद्ध हुए हैं और होवेंगे ॥११४॥
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*अगम अगोचर राखिये, कर कर कोटि जतन ।*
*दादू छाना क्यों रहै, जिस घट राम रतन ॥११५॥*
हे जिज्ञासुओं ! जिस भक्त के हृदय में राम-नाम रूपी महारत्न है, उसको भले ही करोड़ों प्रयत्न करके "अगम से भी अगम" कहिए, आगे से भी आगे, जो "अगोचर" कहिए, गुप्त स्थान है, वहाँ रखो, किन्तु वह छुपा हुआ नहीं रह सकता, अर्थात् प्रकट ही रहेगा, क्यों कि राम-नाम रूपी रत्न उसे छुपा नहीं रहने देता, प्रकट कर देता है ॥ ११५ ॥
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कोल्हू के संघात में, रहै सन्यासी सिद्ध ।
ताहि मूढ़ मारण लगे, पेली शिर में खिद्ध ॥
द्रष्टांत :- एक सच्चे संत ईश्वर के भक्त ने विचार किया कि अपरिचित स्थान में बैठकर ईश्वर-भक्ति करें । वह घूमते हुए पहुँचे, जहाँ बहुत से काश्तकार लोग गन्ना पेल रहे थे । वहीं पर एक किनारे किसी वृक्ष विशेष के नीचे बैठ गए और ईश्वर भक्ति करने लगे । काश्तकारों ने एक दो रोज उनकी दिनचर्या देखी और निश्चय किया कि ये कोई सन्त हैं । उनकी भोजन, वस्त्र आदि से सेवा करने लगे । एक रोज एक साधुओं की जमात मार्ग में जा रही थी । महन्त ने चार साधुओं को कहा :- जहाँ गन्ने पेल रहे हैं, उन गृहस्थियों से गुड़, गन्ना और रस लाओ । वे गए और बोले :- गुड़, गन्ना और रस साधुओं के लिए दीजिए । अपनी श्रद्धा अनुसार सबने दिया । साधु बोले :- और दो । थोड़ा और दिया । फिर बोले:- और दो । 'महाराज, हम लोग गृहस्थी हैं बाल बच्चेदार हैं, बच्चों का भी पालन-पोषण करना है, क्या सभी आप को दे देंगे ?' तब जो वहाँ महात्मा रहते थे, उन पर कोई भेष-बाना नहीं था, क्योंकि वे तत्ववेत्ता थे बोले :- महात्माओं ! साधुओं का यह धर्म नहीं होता है कि किसी को तंग करना । उन चारों हुड़दंगों ने उनकी तरफ देखा और कहने लगे ये सब इसी के चेले हैं । इसी को पकड़ो । इसके हाथ बाँधकर इसे पेड़ पर खैंचो और दो इसके डण्डे लगाओ, जिससे यह इन अपने सेवकों से हमको रसोई दिलावे(धोली दाल और काली रोटी = खीर-पुए) और साथ में भेंट दिलावे । वैसा ही महात्मा के साथ बर्ताव किया । परमेश्वर ने इस बात को न सहन किया । परमेश्वर की सत्ता, उन साधुओं के पास जो गन्ने थे, उनमें व्याप्त हो गई और वे गन्ने अपने आप उठ-उठकर साधुओं को मारने लगे तब उस संत ने और सभी गृहस्थियों ने देखा कि यह क्या हो रहा है ? सन्त जान गये । सन्त ने परमेश्वर से प्रार्थना की कि हे नाथ ! इन साधुओं की रक्षा करो । मेरी खातिर इन्हें कष्ट न दीजिए । तब उनकी रक्षा हो गई । देखिए, सच्चे सन्त के हृदय में सच्चा राम-नाम रूपी रत्न था और वह वहाँ भी प्रकट कर दिया, छुपकर न रहने दिया ।
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*दादू स्वर्ग पयाल में, साचा लेवे नाम ।*
*सकल लोक सिर देखिये, प्रकट सब ही ठाम ॥११६॥*
हे जिज्ञासुओं ! सच्चा भक्त चाहे स्वर्ग में रहे, चाहे पाताल में रहे, वह सच्ची भक्ति के प्रभाव से सर्वलोकों में प्रसिद्ध है और त्रिलोकी के प्राणियों में सबसे अति उत्तम है । इसलिए मनुष्य जन्म पाकर भगवान् की सच्ची भक्ति करनी चाहिए ॥११६॥
शेष महेश सदा शुक नारद,
ध्रुव प्रह्लाद रु दत्त जु पीपा ।
ध्रुव प्रह्लाद रु दत्त जु पीपा ।
दास रैदास रु गोरख भरथरी,
और गोपीचंद जान सु छीपा ॥
और गोपीचंद जान सु छीपा ॥
दास कबीर महासुख सीर रु,
और अनन्त सु राम समीपा ।
और अनन्त सु राम समीपा ।
लोक चराचर है हरि परगट,
कैसे छिपै हरिदास उदीपा ॥
कैसे छिपै हरिदास उदीपा ॥
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