॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*प्रेम मगन रस पाइये, भक्ति हेत रुचि भाव ।*
*विरह बेसास निज नाम सौं, देव दया कर आव ॥५२॥*
सतगुरु महाराज कहते हैं हे प्यारे प्रीतम ! हम विरहीजन आपके प्रेम में मग्न होकर राम-रस पान करें,क्योंकि भक्ति के कारण रुचि कहिए, प्रीति सहित आप में हमारी अन्त:करण की वृत्ति संलग्न हुई है । इस विरह की दशा कहिए, अवस्था में केवल आपके ही नाम का भरोसा है । हे देव ! दया करके तुरन्त दर्शन दीजिए ॥५२॥
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*गई दशा सब बाहुड़ै, जे तुम प्रकटहु आइ ।*
*दादू ऊजड़ सब बसै, दर्शन देहु दिखाइ ॥५३॥*
टीका - श्री दयाल जी महाराज कहते हैं कि जैसे व्यवहार में पतिव्रता की, पति के विरह में विरहिनी की, सौन्दर्य आदि अवस्था जाती रहती है और समस्त वैभव होते हुए भी संसार उजड़ा हुआ प्रतीत होता है, और पति-प्राप्ति से पतिव्रता-दशा कहिए अवस्था में सुन्दरता सार्थक हो जाती है । ऐसे द्रष्टान्त में, भगवत्-विमुखी प्राणी ब्रह्मभाव को विसार कर जीव भाव को प्राप्त हो रहे हैं । और भक्ति, ज्ञान, विवेक वैराग्य आदि दैवी सम्पत्ति से उजड़े हुए हैं । जब ईश्वर सन्मुख होते हैं तो पुन:, ज्ञान, भक्ति, विवेक, वैराग्य आदिक साधन-सम्पन्न होकर स्वरूप का बोध करके ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं ॥५३॥
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*हम कसिये क्या होइगा, बिड़द तुम्हारा जाइ ।*
*पीछै ही पछिताहुगे, ताथैं प्रकटहु आइ ॥५४॥*
टीका - हे प्रभु ! हम विरहीजनों को कसौटी देने से क्या होगा ? आपके वियोग के दु:ख से यदि हमारे प्राण-पिंड का वियोग हो जावे तो "हे नाथ !" "भक्त-वत्सल" "दीनोद्धारक", "पतितपावन" आदि आपकी इन संज्ञाओं का ही भंग होगा । फिर आपको कौन इन संज्ञाओं से सम्बोधित करेगा ? हमारे जीवन का विसर्जन हो जाने पर, अपने भक्तों के वियोग में फिर आपको ही पश्चाताप होगा । इसलिए प्रकट होकर दर्शन दीजिए ॥५४॥
तन मन खायो प्रेम रस, हाड़ खून और मांस ।
खाना अब क्यों छूटिये, पड़ी प्रेम की फांस ॥
(क्रमशः)
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