रविवार, 24 अगस्त 2014

६ . अधीरज उराहनैं को अंग ~ ९

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*६ . अधीरज उराहनैं को अंग*
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*इन्दव छंद -*
*पेट हि कारन जीव हतै बहु,*
*पेट हि माँस भखै रु सुरापी ।* 
*पेट हि लै करि चोरी करावत,*
*पेट हि कौं गठरी गहि कापी ॥* 
*पेट हि पासि गरे महिं डारत,*
*पेट हि डारत कूप हु बापी ।* 
*सुन्दर काहै कौं पेट दियौ प्रभु,*
*पेट सौ और नहीं कोउ पापी ॥९॥*
*पेट के तुल्य नहीं कोई पापी* : इस संसार में आकर प्राणी पेट के कारण ही दूसरों की हत्या करते हैं, और उन का मांस खाते हैं, मद्य पीते हैं । 
पेट के ही कारण लोग दूसरों के घर में चोरी करते हैं, गठरी काटते हैं । 
यह पेट ही लोगों के गले में फांसी लगवाता है, कूए या बावड़ी में छलांग लगवाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हे प्रभु ! आपने हमको पेट ऐसा लगा दिया कि हम समझते हैं कि पेट के समान अन्य कोई पापी नहीं है ॥९॥
(क्रमशः)

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