॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१५. निर्गुण उपासना को अंग*
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*देवनि कै सिर देव बिराजत,*
*ईश्वर कै सिर ईश्वर कहिये ।*
*लालनि कै सिर लाल निरंतर,*
*खूबन कै सिर खूब सु लहिये ॥*
*पाकनि कैं सिर पाक सिरोमनि,*
*देखि बिचारि उहै दिढ गहिये ।*
*सुन्दर एक सदा सिर ऊपरि,*
*और कछू हम कौ नहिं चहिये ॥७॥*
हमारा यह परब्रह्म परमात्मा अन्य सभी देवों में श्रेष्ठ है । सभी ईश्वरों का अधिपति है ।
सभी रत्नों में श्रेष्ठ रत्न है । सर्वातिशायी(सर्वोत्तम) है ।
सभी पवित्र वस्तुओं में पवित्रतम है । विचार विमर्शपूर्वक उसी में दृढ़ आस्था रखनी चाहिये ।
महात्मा श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - हमने अपने आराध्य देव के रूप में उसी को अपने सिर पर विराजमान कर रखा है । अब अन्य किसी की आराधना करने की हमारी इच्छा भी नहीं है ॥७॥
(क्रमशः)
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