शनिवार, 13 दिसंबर 2014

१५. निर्गुण उपासना को अंग ~ ७

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१५. निर्गुण उपासना को अंग* 
*देवनि कै सिर देव बिराजत,*
*ईश्वर कै सिर ईश्वर कहिये ।* 
*लालनि कै सिर लाल निरंतर,*
*खूबन कै सिर खूब सु लहिये ॥* 
*पाकनि कैं सिर पाक सिरोमनि,*
*देखि बिचारि उहै दिढ गहिये ।* 
*सुन्दर एक सदा सिर ऊपरि,*
*और कछू हम कौ नहिं चहिये ॥७॥* 
हमारा यह परब्रह्म परमात्मा अन्य सभी देवों में श्रेष्ठ है । सभी ईश्वरों का अधिपति है । 
सभी रत्नों में श्रेष्ठ रत्न है । सर्वातिशायी(सर्वोत्तम) है । 
सभी पवित्र वस्तुओं में पवित्रतम है । विचार विमर्शपूर्वक उसी में दृढ़ आस्था रखनी चाहिये । 
महात्मा श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - हमने अपने आराध्य देव के रूप में उसी को अपने सिर पर विराजमान कर रखा है । अब अन्य किसी की आराधना करने की हमारी इच्छा भी नहीं है ॥७॥ 
(क्रमशः)

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