मंगलवार, 31 मार्च 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१७४. साधु महिमा । जय मंगल ताल ~
आप निरंजन यों कहै, कीरति करतार ।
मैं जन सेवक द्वै नहीं, एकै अंग सार ॥ टेक ॥ 
मम कारण सब परिहरै, आपा अभिमान ।
सदा अखंडित उर धरै, बोले भगवान ॥ १ ॥ 
अन्तर पट जीवै नहीं, तब ही मर जाइ ।
बिछुरे तलफै मीन ज्यूं, जीवै जल आइ ॥ २ ॥ 
क्षीर नीर ज्यूं मिल रहै, जल जलहि समान ।
आतम पाणी लौंण ज्यों, दूजा नांही आन ॥ ३ ॥ 
मैं जन सेवक द्वै नहीं, मेरा विश्राम ।
मेरा जन मुझ सारिखा, दादू कहै राम ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव संत - महिमा का स्वरूप बता रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! स्वयं निरंजन राम संतों का यश वर्णन करते हैं “मैं और मेरे सेवक संतजन दो नहीं हैं, किन्तु एक अंग रूप हैं । उन्होंने मेरी प्राप्ति के लिये शरीर का अभिमान और कुल कुटुम्ब का आपा त्याग दिया है और सदा अपनी वृत्ति को बहिर्मुख से अर्न्तमुखी हृदय - प्रदेश में मुझ में लगाकर वाणी से मेरा नाम स्मरण करते रहते हैं । उन विरही जन भक्तों के और मेरे बीच में यदि कोई पड़दा आ जाये, तो वह मेरे दर्शनों के बिना तलफ - तलफ कर मर जाते हैं । मेरे वियोग से मछली की तरह तड़फते रहते हैं । मछली को जल प्राप्त हो जाय, तो तभी जी जाती है । 
इसी प्रकार वे मेरा दर्शन पाते ही सुखी हो जाते हैं । वे जल - दूध की भाँति मुझमें एक रूप होकर और जल में जल मिल जाये, इस प्रकार मेरे चैतन्य स्वरूप में अभेद रहते हैं । जैसे पानी में नमक जलरूप हो जाता है, वैसे ही उनकी आत्मा ब्रह्मस्वरूप में अभेद रहती है, फिर उनमें द्वैतभाव समाप्त हो जाता है । परमेश्‍वर कहते हैं कि हे संतों ! मेरे भक्तजनों में और मुझमें द्वैतभाव नहीं है । ऐसे मैं मेरे भक्तों में विश्राम करता हूँ और भक्त मेरे में विश्राम करते हैं । मेरे भक्तजन मेरे स्वरूप ही हैं । ऐसे जानकर तत्ववेत्ता मेरा स्मरण करते रहते हैं ।

Thus does the Supreme Lord,
the glorious Creator Himself declare:
My devotee and I are not two;
we are one in essence,
For My sake does he forsake all,
including his ego and vanity.
Unceasingly does he bear Me in his heart
And repeat My Name.
With a veil intervening, he survives not,
but dies instantly.
Like a fish is he, writhing restlessly
when separated from water,
And reviving only when put back into it.
Like water merging into water,
Like salt dissolving in water, he is unified,
with no duality whatsoever.
My devotee and I are not two;
I rest in him.
My devotee is like Me:
Thus does God declare, O Dadu.
(English translation from 
"Dadu~The Compassionate Mystic" 
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

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