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|| दादूराम सत्यराम ||
"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)" लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान |
नवम विन्दु ~
= शिष्य बड़े सुन्दरदासजी =
= प्रहलादजी आदि का मथुरा में मिलना =
भीमसिंहजी अपने उक्त सेवक के साथ शनैः शनैः मथुरा पहुंचे | वहां इनके पुरोहित प्रहलादजी इनका गया-श्राद्ध कराकर लौटे थे तथा और भी कुछ लोग उनके साथ यात्रा करने आये थे | प्रहलादजी ने इनको मथुरा में देखा तब उनको आश्चर्य हुआ | महाराजा का तो मैं गया-श्राद्ध करा कर यहां लौटा हूँ और महाराज तो ये जीवित हैं | फिर प्रहलादजी ने सोचा कोई और ही होंगे, कभी-कभी एक समान आकृति मिल भी जाती है | किंतु इनसे बात तो करनी चाहिये | प्रहलादजी भीमसिंहजी के पास आये, तब भीमसिंहजी ने प्रणाम किया | फिर पूछा - आप यहां कैसे पधारे हैं ? यात्रा करने ही आये हैं या और कोई कार्य वश आये हैं ? तब प्रहलादजी का कंठ रुक गया, वे बोल न सके और उनके नेत्रों से अश्रु भी टपकने लगे | भीमसिंहजी ने पूछा - गुरुजी ऐसी क्या बात है ? जो आपकी ऐसी स्थिति हो गई है | प्रहलादजी बोले महाराज क्या कहूं कहा नहीं जाता है | भीमसिंहजी ने कहा कहना तो पड़ेहीगा, क्यों संकोच करते हो कह दो | प्रहलादजी बोले - महाराज हमको आपकी वीरगति का समाचार मिला था | इससे महाराणी आपकी कुल परम्परा के अनुसार सती हो गई है और मैं आपका गया-श्राद्ध करा कर लौटा हूँ | यहां आते ही आपका दर्शन हुआ है | इससे मुझे हर्ष और दुःख दोनों ने घेर लिया है | हर्ष तो आपके मिलने का है | दुःख महाराणी के सती होने का है | भीमसिंहजी ने कहा - अच्छा, जो हरि इच्छा होती है वही होता है | जितने दिन संस्कार था उतने दिन संयोग रहा, फिर वियोग तो होना ही था | दोनों में से एक तो जाता ही है | आप क्यों दुःखी होते हैं | प्रहलादजी ने कहा - ठीक है महाराज जो होना था सो तो हो गया, अब आप राजधानी को पधारें | घर पर चलकर सबको हर्षित करें |
(क्रमशः)
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