गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

#daduji 
इन्द्री के आधीन मन, जीव जंत सब जाचै |
तिणे तिणे के आगे दादू, तिहुं लोक फिर नाचै ||६०||
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इन्द्रियों के विषयों में लगा हुआ मन, साधारण पुरुष से लेकर तिर्यक् योनि के जीव सर्प, भूत, प्रेत, जड़( पीपल वृक्ष, वट वृक्ष ), इन सबसे इन्द्रियों के भोगों की अर्थात् स्त्री, धन, पुत्र, आदिक की वासना लेकर उनकी उपासना करता रहता है | इस प्रकार त्रिलोकी में इन्द्रियों की वासना इसको बारम्बार नचाती रहती है ||६०||

इंद्री अपने वश करै, सो काहे जाचन जाइ |
दादू सुस्थिर आत्मा, आसन बैसै आइ ||६१||
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! गुरु उपदेश का विचार करके यह मन इन्द्रियों को अपने काबू में कर लेता है, फिर यह क्यों विषय - वासनाओं की याचना करने जाय ? अर्थात् नहीं जाता है और अन्तःकरण में स्थिर होकर आत्म - स्वरूप हो जाता है ||६१||
वली पास गयो बादशाह, लीने हाथ समेट | 
अरु जयसिंह द्विज सैन दे, जल पत्थर शुचि पेट ॥
दृष्टान्त ~ एक बादशाह के वली नाम का वजीर था | वह बड़ा सच्चा और न्यायकारी था | बादशाह के पास विचार - विमर्श के लिये आया | बादशाह का उस समय मन ठीक नहीं था | वह कुछ बोला नहीं | वह बहुत देर तक बादशाह के आगे हाथ जोड़े खड़ा रहा | उसी दौरान वजीर के पाजामे में एक चींटा घुसकर काटने लगा | बादशाह के सामने हाथ जोड़े हुये होने के कारण वह उसे निकाल भी नहीं सकता था | कुछ समय बाद बादशाह से परामर्श करने पर एकान्त में जाकर चिंटे हुए चींटे को निकाला | वली ने मन में विचार किया कि इससे मैं ज्यादा पढ़ा लिखा और न्याय में निपुण हूँ | अब मेरे अन्दर ऐसी कौन सी कमी है, जिसने मुझे इसका गुलाम बना रखा है | तब उसको भान हुआ कि इन इन्द्रियों की भोग ने मुझे इसका गुलाम बना रखा है | इस वासना का त्याग करके, मैं अपना कल्याण करूँगा | तत्काल ही जंगल में जाकर निर्जन स्थान में बैठ गया | बादशाह मंत्रियों को साथ लेकर वली को ढूंढ़ते - ढूंढ़ते वहाँ जा पहुँचे | वली ने दूर से देखा कि बादशाह आ रहा है | ‘पहले तो मैं इसके पास जाता था, आज निर्वासनिक होते ही यह मेरे पास आया है |’ उस समय वली सिद्ध आसन से बैठे हुए थे, दोनों हाथ सीधे थे | अपने हाथों को उठाकर अपनी काखों में दबा लिया और दोनों पाँव बादशाह की तरफ फैला दिए | बादशाह ने पूछा ~ वली हमें पाँव कब से बतलाए ? वली ~ जब से हाथ समेट लिए, तब से तुम्हें पाँव बतलाए | बादशाह वली के सामने नत - मस्तक हो गया और कहने लगा, अब आप वली नहीं रहे, बली बन गये हो | यह कहकर बादशाह वापिस चल दिया |
द्वितीय दृष्टान्त ~ आमेर के राजा जयसिंह थे | उनके पास एक दिन एक ब्राह्मण याचना करने आया | उस समय राजा संध्या कर रहा था | ब्राह्मण को नमस्कार नहीं किया | ब्राह्मण ने एक पत्थर की कंकरी लेकर राजा के जल के पात्र में डाल दी और राजा को कहा कि इसे जल में तिरा दे | तू बड़ा रामचन्द्र ही आ गया, जो समुद्र पर पुल बांध देगा | जयसिंह समझ गये | राजा ने जल से तीन आचमन लेकर मुँह में डाल ली और ब्राह्मण को चुनौती देते हुए कहा - तू बड़ा अगस्त्य आ गया है, जो सारे समुद्र को जल की तरह पी जाएगा | रामचन्द्र और अगस्त्य दोनों इन्द्रिजीत थे | तभी वे पुल बाँधने और समुद्रजल पीने में समर्थ हो सके थे | राजा ब्राह्मण से यथा - योग्य मिले और जिस इच्छा से ब्राह्मण आया था, उसकी इच्छा पूरी की |

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