गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

अब दो साखियों में उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ जिज्ञासुओं को उपदेश का वर्णन :- 
गुरु पहली मन सौं कहै, पीछे नैन की सैन । 
दादू सिष समझै नहीं, कहि समझावै बैन ॥ १०९ ॥ 
कहै लखै सो मानवी, सैन लखै सो साध । 
मन लखै सो देवता, दादू अगम अगाध ॥ ११० ॥ 
टीका ~ जो उत्तम अधिकारी हैं, उनको सतगुरु अपनी भावना द्वारा ही उपदेश करते हैं । ऐसे जिज्ञासु दिव्य साधन संपन्न हैं जिससे उत्तम अधिकारी तो मन की जानते हैं मध्यम अधिकारी को सतगुरु नैन की सैन से उपदेश करते हैं । ऐसे जिज्ञासु उत्तम गुणों से युक्त हैं और सतगुरु के सांकेतिक उपदेश को ह्रदय में धारण करते हैं । तीसरी श्रेणी अब कनिष्ठ जिज्ञासु की है, जो मन और सैन से तो सतगुरु के उपदेश को ग्रहण कर नहीं सकते हैं, ऐसे पुरुषों को सतगुरु वाणी द्वारा आत्मोपदेश करते हैं, ऐसे मनुष्य उचित सद्गुणों से युक्त हैं । सतगुरु के उपदेश से सभी जिज्ञासुओं को अगम अगाध भगवत् - प्राप्ति रूप फल मिलता है ॥ १०९/११० ॥ 

"आकारैरिंगितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च । 
नेत्रवक्य विकारैश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मन: ॥ '' 

"उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी च मध्यम: । 
अधमोऽश्रद्धया कुर्याद् अकर्तोच्चरितं पितु: ॥ '' 

संगति कीन्ही साध की, समझ सक्यो नहीं बैन ।
सतगुरु बंदी छोर की, सूवो समझग्यो सैन । 

मन की जगजीवन लही, नैन सैन गोपाल । 
वचन रज्जब बखनां लहे, गुरु दादू प्रतिपाल ॥ 

दृष्टांत :- ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज आमेर में विराजते थे । जगजीवनराम जी काशी में पढ़कर दिग्विजय करने के लिए चले । जहाँ तहाँ शास्त्रार्थ में विद्वानों को जीतते हुए विजय - पत्र प्राप्त करते थे । इसी प्रकार आमेर नगर में भी आ पहुँचे, जहाँ राजा मानसिंह राज करता था । वहाँ के समस्त विद्वानों को शास्त्रार्थ ललकारा । 
वे विद्वान ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज के पास जाकर बोले :- हमारी लाज रखो, गुरुदेव ! हमसे जीत का पत्र जगजीवनराम पण्डित चाहता है और आप भी यहाँ विराजते हो । इस अम्बावती नगर की महिमा आपसे सुशोभित हो रही है । हमने उसको बोला है कि हमारे गुरु हैं, उनको तुम विजय कर लो तो हम आपको जीत का पत्र लिख देंगे । ब्रह्मर्षि यह बात सुनकर प्रभु की प्रेरणा से बोले :- आप लोग उनको यहाँ बुलाओ शास्त्रार्थ के लिए । शास्त्रार्थ सहमति जताकर पण्डित जी को बुलाया । 
पण्डित जी ने जब सतगुरु के दूर से दर्शन किए तो उनके मन में यह भावना उठी कि ये तो कल्याण करने वाले हैं । इनसे आत्मोपदेश लेकर मुझे अपना कल्याण करना चाहिए । ये वाद - विवाद के योग्य नहीं हैं । पण्डित जी शास्त्रार्थ की भावना को भूल गए और आकर गुरुदेव को साष्टांग प्रणाम किया, हाथ जोड़कर सामने बैठ गए । सतगुरु उस समय ध्यान में मग्न थे । परम गुरुदेव जी ने पण्डित जी को जो उपदेश किया । वह श्री दादूवाणी में राग रामकली में यह शब्द लिखा है । यह उपदेश सतगुरु ने मन से किया और मन से ही पण्डित ने उत्तम जिज्ञासु होने के नाते धारण कर सद्गुरु के सम्मुख साष्टांग दण्डवत् कर उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया । सभा में सन्नाटा छा गया । 
यह अनहोनी बात कैसे बनी ? उस समय श्री दादूदयाल जी ध्यानावस्था में बैठे थे, ध्यान में उन्होंने जान लिया कि यह विद्वान होते हुए भी अर्जित ज्ञान का उपयोग अपने जीवन के उद्धार में न कर उसे व्यर्थ के वाद - विवाद में लगा रहा है और अहंकार के मद में डूबकर इस जीवन के परमध्येय ईश्वर भक्ति से विमुख हो रहा है । अत: मन ही मन में यह उपदेश दिया - "पंडित राम मिले सो कीजे'' । 

द्वितीय दृष्टांत :- ब्रह्मर्षि दादू दयाल अकबर बादशाह के बुलाने से जब सीकरी गए तो नगर में जाते समय एक संन्यासी साधु, दुकानों पर हारमोनियम बजाता गाता हुआ, भीख माँग रहा था । महाराज ने उसकी तरफ देखा । उसने भी महाराज की तरफ देखा । गुरुदेव ने नेत्र का इशारा किया । मध्यम अधिकारी होने के नाते भीख माँगना छोड़ दिया । बाजा डाल दिया । अन्त:करण में विरह का दर्द जाग उठा । उसी समय गुरुदेव के साथ हो गया और गुरुदेव के अमृतमय वचनों से तृप्त होकर जीवन - मुक्त हो गया । उन्होंने फिर कई ग्रन्थ बनाए हैं :- ध्रुव संवाद, प्रहलाद संवाद, दादू दयाल महाराज की जन्म - लीला इत्यादिक ग्रन्थों की रचना की । यह जनगोपाल के नाम से दादू जी के शिष्यों में प्रसिद्ध हुए । 
तीसरा दृष्टांत :- रज्जब जी और बखना जी कनिष्ठ श्रेणी के अधिकारी थे । इनको गुरुदेव ने वाणी से उपदेश दिया । यह प्रसंग हम पूर्वोक्त गुरुदेव के अंग में कह चुके हैं, वहाँ देखो । 
चित्र सौजन्य ~ @मुक्ता अरोड़ा स्वरूप निश्चय 

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