अब दो साखियों में उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ जिज्ञासुओं को उपदेश का वर्णन :-
गुरु पहली मन सौं कहै, पीछे नैन की सैन ।
दादू सिष समझै नहीं, कहि समझावै बैन ॥ १०९ ॥
कहै लखै सो मानवी, सैन लखै सो साध ।
मन लखै सो देवता, दादू अगम अगाध ॥ ११० ॥
टीका ~ जो उत्तम अधिकारी हैं, उनको सतगुरु अपनी भावना द्वारा ही उपदेश करते हैं । ऐसे जिज्ञासु दिव्य साधन संपन्न हैं जिससे उत्तम अधिकारी तो मन की जानते हैं मध्यम अधिकारी को सतगुरु नैन की सैन से उपदेश करते हैं । ऐसे जिज्ञासु उत्तम गुणों से युक्त हैं और सतगुरु के सांकेतिक उपदेश को ह्रदय में धारण करते हैं । तीसरी श्रेणी अब कनिष्ठ जिज्ञासु की है, जो मन और सैन से तो सतगुरु के उपदेश को ग्रहण कर नहीं सकते हैं, ऐसे पुरुषों को सतगुरु वाणी द्वारा आत्मोपदेश करते हैं, ऐसे मनुष्य उचित सद्गुणों से युक्त हैं । सतगुरु के उपदेश से सभी जिज्ञासुओं को अगम अगाध भगवत् - प्राप्ति रूप फल मिलता है ॥ १०९/११० ॥
"आकारैरिंगितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च ।
नेत्रवक्य विकारैश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मन: ॥ ''
"उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी च मध्यम: ।
अधमोऽश्रद्धया कुर्याद् अकर्तोच्चरितं पितु: ॥ ''
संगति कीन्ही साध की, समझ सक्यो नहीं बैन ।
सतगुरु बंदी छोर की, सूवो समझग्यो सैन ।
मन की जगजीवन लही, नैन सैन गोपाल ।
वचन रज्जब बखनां लहे, गुरु दादू प्रतिपाल ॥
दृष्टांत :- ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज आमेर में विराजते थे । जगजीवनराम जी काशी में पढ़कर दिग्विजय करने के लिए चले । जहाँ तहाँ शास्त्रार्थ में विद्वानों को जीतते हुए विजय - पत्र प्राप्त करते थे । इसी प्रकार आमेर नगर में भी आ पहुँचे, जहाँ राजा मानसिंह राज करता था । वहाँ के समस्त विद्वानों को शास्त्रार्थ ललकारा ।
वे विद्वान ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज के पास जाकर बोले :- हमारी लाज रखो, गुरुदेव ! हमसे जीत का पत्र जगजीवनराम पण्डित चाहता है और आप भी यहाँ विराजते हो । इस अम्बावती नगर की महिमा आपसे सुशोभित हो रही है । हमने उसको बोला है कि हमारे गुरु हैं, उनको तुम विजय कर लो तो हम आपको जीत का पत्र लिख देंगे । ब्रह्मर्षि यह बात सुनकर प्रभु की प्रेरणा से बोले :- आप लोग उनको यहाँ बुलाओ शास्त्रार्थ के लिए । शास्त्रार्थ सहमति जताकर पण्डित जी को बुलाया ।
पण्डित जी ने जब सतगुरु के दूर से दर्शन किए तो उनके मन में यह भावना उठी कि ये तो कल्याण करने वाले हैं । इनसे आत्मोपदेश लेकर मुझे अपना कल्याण करना चाहिए । ये वाद - विवाद के योग्य नहीं हैं । पण्डित जी शास्त्रार्थ की भावना को भूल गए और आकर गुरुदेव को साष्टांग प्रणाम किया, हाथ जोड़कर सामने बैठ गए । सतगुरु उस समय ध्यान में मग्न थे । परम गुरुदेव जी ने पण्डित जी को जो उपदेश किया । वह श्री दादूवाणी में राग रामकली में यह शब्द लिखा है । यह उपदेश सतगुरु ने मन से किया और मन से ही पण्डित ने उत्तम जिज्ञासु होने के नाते धारण कर सद्गुरु के सम्मुख साष्टांग दण्डवत् कर उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया । सभा में सन्नाटा छा गया ।
यह अनहोनी बात कैसे बनी ? उस समय श्री दादूदयाल जी ध्यानावस्था में बैठे थे, ध्यान में उन्होंने जान लिया कि यह विद्वान होते हुए भी अर्जित ज्ञान का उपयोग अपने जीवन के उद्धार में न कर उसे व्यर्थ के वाद - विवाद में लगा रहा है और अहंकार के मद में डूबकर इस जीवन के परमध्येय ईश्वर भक्ति से विमुख हो रहा है । अत: मन ही मन में यह उपदेश दिया - "पंडित राम मिले सो कीजे'' ।
द्वितीय दृष्टांत :- ब्रह्मर्षि दादू दयाल अकबर बादशाह के बुलाने से जब सीकरी गए तो नगर में जाते समय एक संन्यासी साधु, दुकानों पर हारमोनियम बजाता गाता हुआ, भीख माँग रहा था । महाराज ने उसकी तरफ देखा । उसने भी महाराज की तरफ देखा । गुरुदेव ने नेत्र का इशारा किया । मध्यम अधिकारी होने के नाते भीख माँगना छोड़ दिया । बाजा डाल दिया । अन्त:करण में विरह का दर्द जाग उठा । उसी समय गुरुदेव के साथ हो गया और गुरुदेव के अमृतमय वचनों से तृप्त होकर जीवन - मुक्त हो गया । उन्होंने फिर कई ग्रन्थ बनाए हैं :- ध्रुव संवाद, प्रहलाद संवाद, दादू दयाल महाराज की जन्म - लीला इत्यादिक ग्रन्थों की रचना की । यह जनगोपाल के नाम से दादू जी के शिष्यों में प्रसिद्ध हुए ।
तीसरा दृष्टांत :- रज्जब जी और बखना जी कनिष्ठ श्रेणी के अधिकारी थे । इनको गुरुदेव ने वाणी से उपदेश दिया । यह प्रसंग हम पूर्वोक्त गुरुदेव के अंग में कह चुके हैं, वहाँ देखो ।
चित्र सौजन्य ~ @मुक्ता अरोड़ा स्वरूप निश्चय
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