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卐 सत्यराम सा 卐
३३९. मन ~
मन चंचल मेरो कह्यो न मानै, दसों दिशा दौरावै रे ।
आवत जात बार नहि लागै, बहुत भाँति बौरावै रे ॥टेक॥
बेर बेर बरजत या मन को, किंचित सीख न मानै रे ।
ऐसे निकस जाइ या तन तैं, जैसे जीव न जानै रे ॥१॥
कोटिक जतन करत या मन को, निश्चल निमष न होई रे ।
चंचल चपल चहुँ दिशि भरमै, कहा करै जन कोई रे ॥२॥
सदा सोच रहत घट भीतर, मन थिर कैसे कीजे रे ।
सहजैं सहज साधु की संगति, दादू हरि भजि लीजे रे ॥३॥
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साभार ~ @बिष्णु देव चंद्रवंशी
प्रायः लोग यही कहते हैं कि मन की चंचलता नहीं मिटती, मन स्थिर नहीं होता। पर मन की चंचलता तो विधि - विधान द्वारा नित्य नैमित्तिक कर्मों द्वारा ही दूर हो सकती है। उसे तो करते नहीं, एकदम ध्यानस्थ हो जाने की कल्पना करते हैं, सो कैसे सफल हो।
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शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध में ही तो मन जाता है। मन तो इनके पीछे दौड़ते - दौड़ते मलिन हो रहा है, शुद्धता की ओर जा कैसे सकता है। मन को वृत्ति तो श्वान - वृत्ति बन रही है। सुख की चाह में इधर - उधर भटकता हुआ कभी रूप के पीछे, कभी गंध के पीछे, कभी स्पर्श के पीछे, कभी शब्द के पीछे, श्वानवत् मन दौड़ा करता है, परन्तु स्थिर नहीं हो पाता। वह तो निरंतर विषयाराम बना हुआ है, आत्माराम कैसे बने।
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विषयों से हट कर यदि आत्मा की ओर झुकाव हो जावे तो आत्माराम बने, विषयाराम न बने। जिसका मन भगवत् दर्शन् की ओर लग गया है, वह सिनेमा देखने नहीं दौड़ेगा। जो भगवान के रूप का प्रेमी बन गया है, वह किसी सांसारिक रूप की ओर आँख नहीं उठायेगा। जो भगवत् - चरण के स्पर्श का अक्षय सुख अनुभव करने लगता है, वह भौतिक स्पर्श की इच्छा नहीं करता।
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