गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

२२. विपर्यय को अंग ~ २९


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२२. विपर्यय को अंग* 
*एक अहेरी बन मैं आयौ,*
*खेलन लाग्यौ भली सिकार ।*
*कर मैं धनुष कमरि मैं तरकस,*
*सावज घेरे बारंबार ॥*
*मार्यौ सिंघ व्याघ्र पुनि मार्यौ,*
*मारी बहुरि मृगनि की डार ।*
*ऐसैं सकल मारि घर ल्यायौ,*
*सुन्दर राजहिं कीयौ जुहार ॥२९॥*
*एक अहेरी बन मैं आया* : एक कुशल व्याध रूप सन्त इस संसार या देह रूप वन में शिकार(मन, इन्द्रिय पर विजय या भगवत्प्राप्ति) के उद्देश्य से आया ।
*कर मैं धनुष कमरि मैं तरकस* : उसके हाथ में धनुष(राम नाम) एवं कमर(हृदय) में तरकस(विचार रूप वाण) बाँध कर शिकार योज्ञ पशुओं(मन, इन्द्रियों) पर बार बार घेरा डाला ।
*मार्यौ सिंघ व्याघ्र पुनि मार्यौ* : इस तरह उसने सिंह, व्याघ्र, मृग आदि अनेक पशु(काम - क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार) मार डाले ।
*ऐसे सकल मारि घर आयौ* : *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस प्रकार उसने उनको को मार कर राजा(प्रभु परमात्म) को अर्पित किया ॥२९॥ 
(क्रमशः)

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