॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय को अंग*
.
*शुक के बचन अमृतमय अैसैं,*
*कोकिल धार रहै मन मांहिं ।*
*सारौ सुनै भागवत कबहौं,*
*सारस तौऊ पावै नाहिं ॥*
*हंस चुगै मुक्ताफल अर्थहिं,*
*सुन्दर मानसरोवर न्हांहि ।*
*काक कवीश्वर बिषई जेते,*
*ते सब दौरि करकं हि जांहि ॥३०॥*
*शुक के बचन अमृतमय अैसैं* : तोता रूपी ज्ञानी शुकदेव के अमृतमय वचन इतने कर्णमधुर हैं कि कोयल रूप सभी विचारवान् पुरुष उनको सुनने हेतु उत्सुक रहते हैं । परन्तु सारस रूप अविवेकी पुरुष, उस भागवत(शुकदेव की वाणी) को सुनने के लिए कभी ही उत्सकता दिखाता है । यदि कभी सुनता भी है तो उसका अर्थ ग्रहण करने में वह समर्थ नहीं होता ।
*हंस चुगै मुक्ताफल अर्थहिं* : *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - केवल हंस(विवेकी जन) में ही वह सामर्थ्य है कि वह उस का मुक्ता सदृश गूढ सारवान् अर्थ समझ सकता है तथा मानसरोवर(हृदय) में स्नान कर प्रसन्न हो सकता है ।
*काक कवीश्वर बिषई जेते* : इसके अतिरिक्त कौए के सदृश सांसारिक व्यवहार में निपुण विद्वान, विषयभोगभिमुख होने के कारण, करंक(काम, क्रोधादि दोषों) की ओर ही प्रवृत होते हैं ॥३०॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें