सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/१००-२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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गुरु - ज्ञान
दादू पँच स्वादी पँच दिशि, पँचे पँचोँ बाट ।
तब लग कहा न कीजिये, गह गुरु दिखाया घाट ॥१००॥
१०० - १०१ में इन्द्रियों को अन्तर्मुख करने विषयक गुरु का ज्ञान सिखा रहे हैं -पँच विषयों का स्वाद लेने वाली पँच ज्ञानेन्द्रियाँ अपने २ विषय रूप पँच दिशा में जाती हैं । पाँचों एक मार्ग से नहीं चल सकतीं । इन पँचों के पँच विषय रूप पाँच ही मार्ग हैँ । इनका कहना तब तक स्वीकार नहीं करना चाहिए जब तक ये गुरु के बताये हुये ब्रह्म - सरोवर के ब्रह्म चिन्तन रूप घाट को ग्रहण न कर लें । ब्रह्म - परायण होने पर तो स्वाभाविक ही अन्तर्मुख रहेंगी, निषिद्ध में नहीं जा सकेंगी ।
दादू पँचों एक मत, पँचों पूरे साथ ।
पँचों मिल सन्मुख भये, तब पँचों गुरु की बाट ॥१०१॥
गुरु - ज्ञानोपदेश द्वारा पँच ज्ञानेन्द्रियाँ एक मत होने लगी थीं, उसी अवस्था में हमने पाँचों को एक साथ ही ब्रह्म स्वरूप में लगाया था । ऐसा करने से ही पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि ब्रह्म - परायण हुये था । साधकों को भी चाहिये कि - जब इन्द्रियादि ब्रह्म - परायण होँ तब ही समझें कि इन पँच इन्द्रियादि ने गुरु का बताया हुआ साधन मार्ग ग्रहण कर लिया है ।
सद्गुरु - विमुख ज्ञान
दादू ताता लोहा तिणे सूँ, क्यों कर पकड्या जाइ ।
गहन गति सूझे नहीं, गुरु नहीं बूझे आइ ॥१०२॥
सद्गुरु - विमुख ज्ञान का परिचय दे रहे हैं - जैसे तप्त लोहा तृण से किसी प्रकार भी नहीं पकड़ा जा सकता वैसे ही कामादि से तपा हुआ परम विक्षिप्त मन, तीर्थ, व्रत, दानादिक साधारण साधनों से निग्रह तथा शाँत नहीं किया जा सकता । मन को निग्रह करने की अभ्यास वैराग्यादि, आँतर साधन रूप गहन गति स्वयँ को तो बहिर्मुख होने से दीखती नहीं और गुरु के पास आकर पूछता नहीं । ऐसे व्यक्ति का मन कैसे निग्रह हो सकता है ?
(क्रमशः)

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