गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ५२-४) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*हरसंखाणा२*
*मिलै येक संगा । नहीं भिन्न अंगा ।*
*करै यौं विलासा । धरै भाव दासा ॥५२॥*
{२- हरसंषांणा = यह अर्द्धभुजंगी छन्द है, जिसको ‘सोमराजी’ छन्द भी कहते हैं । दो यगण(६वर्णों) का होता है ।} 
इस तरह भक्त को भगवान् के साथ(सूक्ष्म शरीर से) इतनी एकरूपता स्थापित कर लेनी चाहिये, उनमें कहीं से पृथक्ता न दिखायी दे । इतने पर भी, इस भक्त को अपना दास्य-भाव न त्याग कर भगवान् से अपनी इतनी भिन्नता अवश्य रखनी चाहिये कि सेवक-सेव्य भाव बना रहे ॥५२॥
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*चौपई*
*ज्यौं मृगतृष्णां धूप मंझारी ।* 
*येक मेक अरु दीसत न्यारी ।*
*त्यौं ही स्वामी सेवक येका ।* 
*सुख बिलसै यह भिन्न बिबेका ॥५३॥*
(इसी बात को एक उदाहरण के द्वारा समझा रहे हैं) जैसे दोपहर की धूप के समय दिखायी देने वाली मृगतृष्णा(मृगमरीचिका) धूप में एकरुप लगती हुई भी भिन्न दिखायी देती है, इसी तरह इस परा भक्ति के अभ्यास में सेवक अपने सेव्य के साथ एकरुप हो जाता है, फिर दास्य भाव से अपने को अलग भी रखता है । 
(इस उदाहरण से श्रीसुन्दरदासजी ने सेवक और सेव्य के एकत्व के उदाहरण में बडा चमत्कार दिखाया है । सेवक केवल उपाधि से भिन्न प्रतीत होता है । जैसे मृगतृष्णा कुछ है नहीं, प्रतिभास मात्र है) ॥५३॥
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*त्रोटक*
*हरि मैं हरिदास बिलास करै ।* 
*हरि सौं कबहू न बिछोह परै ।*
*हरि अक्षय त्यौं हरिदास सदा ।* 
*रस पीवन कौं यह भाव जुदा ॥५४॥*
भक्त का भगवान में ही हमेशा अपना चित लगाये रखना चाहिये । और अपनी देहिक मानसिक चेष्टाओं पर ऐसा नियन्त्रण ले आना चाहिये कि उनसे भगवान् के ध्यान का वियोग न हो पावै । भक्त को सदा भगवान् के और अपने शाश्‍वत भाव का ध्यान रखना चाहिये । हाँ ! भगवन्नामामृत पान करने के लिये अपने को भगवान् के सेवक रुप में पृथक् जरुर समझना चाहिये ॥५४॥
(क्रमशः)

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