शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ५५-६) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*मनहर* 
*तेजोमय स्वाँमी तहँ, सेवक हू तेजोमय,* 
*तेजोमय चरन कौ, तेज सिर नांवई ॥* 
*तेजोमय सब अंग, तेजोमै मुखारबिंद,* 
*तेजोमय नैननि, निरखि तेज भावई ॥* 
*तेजोमय ब्रह्म की, प्रशंसा करै तेजमुख,* 
*तेज ही की रसना, गुनानुवाद गावई ॥* 
*तेजोमय सुन्दर हू, भाव पुनि तेजोमय,* 
*तेजोमय भगति कौं, तेजोमय पावई ॥५५॥* 
(महात्मा कहते हैं कि परा भक्ति का अभ्यास करते-करते एक दिन ऐसा आ जाता है-) स्वामी(सेव्य) और सेवक(भक्त) दोनों दिव्य प्रकाश स्वरुप हो जाते हैं । वहाँ स्वामी के तेज:स्वरुप शिर वन्दना करता है । (इतना ही क्यों, यों कहिये कि) भक्त और भगवान् के सभी अंग तेजोमय हो उठते हैं, उनका मुखकमल भी प्रकाश से दीप्त हो उठता है । भक्त के तेज:स्वरुप नेत्र भगवान् के तेज:स्वरुप रुप को देख कर मुदित हो उठते हैं । परा भक्ति की उस अवस्था में तेजोमय ब्रह्म की भक्त का तेजोमय मुख प्रशंसा करता रहता है, और भक्त की तेज:स्वरुप जिह्वा निरन्तर गुणगान करती रहती है । (कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि) परा भक्ति की इस अवस्था में भक्त और भगवान् एक अलौकिक प्रकाशपुञ्ज हो उठते हैं, इस प्रकाशस्वरुप परा भक्ति को अभ्याससम्पन्न कोई तेज:स्वरुप भक्त ही प्राप्त कर सकता है । यह हर एक साधारण जन के वश की बात नहीं ॥५५॥ 
*दोहा* 
*त्रिविध भक्ति लक्षण कहे, उत्तम मध्य कनिष्ठ ।* 
*सुनहिं शिष्य सिद्धांत यह, उत्तम भक्ति गरिष्ठ ॥५६॥* 
इति सुन्दरदासेन विरचिते ज्ञानसमुद्रे उत्तमा-मध्यमा-कनिष्ठा भक्तियोग सिद्धांतनिरुपणं नाम द्वितीयल्लास: ॥२॥ 
(श्री गुरुदेव कहते हैं-) इस तरह हमने उत्तम(परा) मध्यम(प्रेमा) और कनिष्ठ(नवधा) यों तीनों प्रकार की भक्तियों के लक्षण विस्तार से कह दिये । हे शिष्य ! सिद्धान्तरूप में हम तुझे यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं इन तीनों में उत्तम (परा) भक्ति ही सर्व-श्रेष्ठ है । अर्था्त इस परा भक्ति का सतत अभ्यास करने पर ही भगवान् के दिव्य तेजोमय रुप का साक्षात्कार हो सकता है ॥५६॥ 
श्री सुन्दरदासजी द्वारा रचित ज्ञानसमुद्र में उत्तम-मध्यम-कनिष्ठभक्तियोग-विषयक सिद्धांतनिरुपण नामक द्वितीय उल्लास समाप्त ॥ 
(क्रमशः)

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