रविवार, 28 फ़रवरी 2016

= विन्दु (२)६९ =


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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६९ =*
*= गरीबदासजी को उपदेश =*
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एक दिन गरीबदास, मसकीनदास, सभाकुमारी और रूपकुमारी चारों को सामने बैठाकर दादूजी ने इस पद से उपदेश किया -
"आप आपणे मैं खोजो रे भाई, 
वस्तु अगोचर गुरु लखाई॥टेक॥
ज्यों मही बिलोये माखण आवे, 
त्यों मन मथियाँ तैं तत पावे॥१॥
काष्ट हुताशन रह्या समाई, 
त्यों मन मांहीं निरंजन राई॥२॥
ज्यों अवनी में नीर समाना, 
त्यों मन माँहीं साँच सयाना॥३॥
ज्यों दर्पण के नहिं लागे काई, 
त्यों मूरति मांहीं निरख लखाई ॥४॥
सहजैं मन मथिया तैं तत पाया, 
दादू उनतो आप लखाया ॥५॥
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भाइयों ! तुम स्वयं ही गुरु की बताई पद्धति से भजन-विचारादि साधन द्वारा इन्द्रियातीत आत्म वस्तु को खोजोगे, तब गुरुदेव संकेत मात्र से ही तुम्हें दिखा देंगे । जैसे दही को मन्थन करने से मक्खन हाथ आता है, वैसे ही मन में ध्यान-विचार करने से आत्म तत्त्व प्राप्त होता है । जैसे काष्ट में व्यापक अग्नि रहता है, वैसे ही मन में विश्व के राजा निरंजन ब्रह्म हैं । जैसे पृथ्वी में जल है, वैसे ही चतुर लोगों ! मन में सत्य ब्रह्म है । जैसे दर्पण में स्थित प्रतिबिम्ब के दर्पण का मैल नहीं लगता, वैसे ही शरीर में स्थित आत्म स्वरूप ब्रह्म के शरीर के विकार नहीं लगते ।
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तुम विचार द्वारा देखो, तो दिखाई देगा । जिन्होंने मन से ध्यान-विचार किया है, उन्होंने ब्रह्मात्म तत्त्व को प्राप्त किया है और उन्होंने तो अन्य साधकों को भी निजात्म रूप से ब्रह्म का साक्षात्कार कराया है । फिर उन चारों को शिष्य बनाकर उक्त पद के उपदेशानुसार ही उन सबको साधन में लगा दिया । फिर साधन का अभ्यास करके वे सब ही महान् सन्त हो गये थे ।
(क्रमशः)

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