शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

= विन्दु (२)६९ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६९ =*
*= अनन्त ब्रह्माँड देखना =*
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*= अनन्त ब्रह्माँड देखना =*
आमेर निवास के समय एक दिन दादूजी को ऐसा संकल्प हुआ यह संसार कितने विस्तार वाला है ? इसका पता लगना चाहिये । फिर संसार का अन्त जानने के लिये ध्यान द्वारा अपनी वृत्ति चलाई, तब अनन्त कोटि ब्रह्मांड देखने में आये पर उनका अन्त ज्ञात नहीं हो सका, तो भी वृत्ति से आगे बढ़ना चाहा तब -
*परा-शब्द ऐसे तहँ आयो,*
*वार पार काहू नहिं पायो ॥५७॥*
*अजर अमर एक हि अस्थाना,*
*ताका मर्म न काहू जाना ।*
*महा पुरुष की पड़े जु छाया,*
*पावै ज्ञान तजै सब माया ॥५८॥*
(जन गोपाल - विश्राम ८)
अर्थात् ब्रह्मवाणी ने कहा - इस मायिक संसार का पार किसी ने भी नहीं पाया है । तुम यह व्यर्थ का श्रम छोड़ दो । यह सब तो मिथ्या है । जो इस को जानने का परिश्रम करते रहे हैं, उनमें से किसी ने भी, अजर, अमर, अद्वैत ब्रह्मरूप परमधाम का मर्म नहीं जाना है । अतः महापुरुष मायिक प्रपंच को त्याग कर ब्रह्म ध्यान में ही निमग्न रहते हैं । उन महापुरुषों की सत्संग रूप छाया जिस पड़ती है, वह भी ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त करके इस माया और सर्व मायिक प्रपंच का त्याग कर देता है ।
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उक्त पराशब्द के पश्चात् दादूजी के मुख-कमल से यह उच्चारण हुआ -
*आदि अन्त आगे रहे, एक अनूपम देव ।*
*निराकार निज निर्मला, कोई न जाने भेव ॥*
*अविनाशी अपरंपरा, वार पार नहिं छेव ।*
*सो तू दादू देख ले, उर अन्तर कर सेव ॥*
अर्थात् इस मिथ्या मायिक प्रपंच को देखने पर इसके आदि अंत और मध्य में जो भी अद्वैत अनुपम ब्रह्मरूप देव ही सत्यरूप में आगे भासता है । उसका निज स्वरूप निराकार है, निर्मल है किन्तु उसके उक्त स्वरूप को, उसके यथार्थ ज्ञान बिना कोई भी नहीं जान सकता । वह अविनाशी है, अपरंपार है, उसके वार पार का अंत नहीं है । उस ब्रह्म का साक्षात्कार करना हो तो अपने हृदय के भीतर ही उस ब्रह्म की भक्ति करो ।
(क्रमशः)

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