रविवार, 28 फ़रवरी 2016

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू ज्यों कुछ सपने देखिये, तैसा यहु संसार ।
ऐसा आपा जानिये, फूल्यो कहा गँवार ॥ 
दादू जतन जतन करि राखिये, दिढ़ गहि आतम मूल ।
दूजा दृष्टि न देखिये, सब ही सैंबल फूल ॥ 
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साभार ~ Anand Dhawankar
यह ठोस प्रतीत होने वाला शरीर वस्तुतः असंख्य-असंख्य परमाणुओं-का कलापों-का पुंज मात्र है. (कलापों का भी कोई अस्तित्व नहीं और वे केवल स्वभाव मात्र है.) यह परमाणुओ का पुंज भी सतत प्रवाहमान है, परिवर्तनशील है; नित्य-स्थिर नहीं है. यही दशा मन की भी है. मन के प्रकम्पन शरीर के प्रकम्पन में बदल जाते है और शरीर के प्रकम्पन मन के प्रकम्पन में. (Mind converts into matter & wise versa). तृष्णा हो, लालसा हो, आसक्ति हो, राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह मद, मद, मत्सर, इर्ष्या, वैर, अहंकार, ये सारे है प्रकम्पन ही प्रकम्पन है. मन में उत्पन्न होने वाले सारे विकार(Emotions) और विचार(Thought) ये सारे तरंग मात्र है और हर तरंग की वेव-लेंथ होती है. अगर हम हमारे मन में क्रोध की तरंगे पैदा करेंगे तो पुरे ब्रम्हांड में उस वेव-लेंथ की तरंगे जहा भी होंगी हम उससे ट्यून-अप हो जायेंगे इसी प्रकार अगर हम अपने मन में मैत्री-करुना-मुदिता-सद्भावना की तरंगे पैदा करेंगे तो पुरे विश्व में जहा भी वैसी तरंगे होंगी हम उससे ट्यून-अप हो जायेंगे. अब ये हमारे ऊपर निर्धारित है की हम कितने अच्छे ट्रांसमीटर बन जांए और कितने अच्छे रिसीवर बन जांए. 
बुद्ध ने अपने बोधि चित्त से देखा: परमाणुओं से भी छोटा जिसे आगे विभाजित नहीं किया जा सकता उसका नाम “कलाप” रखा. कलाप – यह भी इकाई नहीं है, किन्तु समूह है. वह कोई ठोस कण नहीं है, किन्तु तरंगों का पुंज मात्र है, जिसमे पृथ्वी-धातु, अग्नि-धातु, जल-धातु, वायु-धातु ये चार धातु और चार उनके गुणधर्म/स्वभाव – ऐसे आठो के समूह को “अष्ट-कलाप” नाम दिया. जो भी ठोस वस्तु प्रतीत होती है, वह असंख्य कलापों का पुंज मात्र है. ये कलाप प्रतिक्षण अनगिनत बार उत्त्पन्न होकर नष्ट होते है. इसे संततिघन कहा है. इसी कारण वस्तु हमें ठोस प्रतीत होती है. 
हमारी इन्द्रिया भी तरंग मात्र है इनसे उसके विषय जब टकराते है तो एक नयी तंरंग का जन्म होता है. यही आलंबन-घन है. जैसा बीज वैसा फल उत्पन्न होता है. बाह्य रूप में जो द्रश्य-रूप अलग-अलग देखे जाते है, वह केवल भासमान सत्य है अंतिम सत्य तो तरंग ही तरंग है. और ये सब अनित्य है – नश्वर है - क्षण-भंगुर है. जो इतना अनित्य है – नश्वर है - क्षण-भंगुर है – यह शरीर केवल “प्रपंच” मात्र है. 
जब हम किसि शब्द का जाप करते है तो उस शब्द की वेव लेंन्थ होती है उससे केवल एक फायदा होता है की बहार की दूषित तरंगे हमें प्रभावित नहीं करती बस.. अन्दर के विकारों की निर्जरा नहीं होती. 
- आनंद 
– ह्रदय की तलस्पर्शी गहराइयों से क्षमस्व.

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