बुधवार, 7 दिसंबर 2016

= परिचय का अंग =(४/२८१-८३)

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卐 सत्यराम सा 卐 
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
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**= परिचय का अँग ४ =** 
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*ध्यान - अध्यात्म*
शब्द सुरति ले सान चित, तन मन मनसा माँहिं ।
मति बुधि पँचों आतमा, दादू अनत न जाँहिं ॥२८१॥
२८१ - २९१ में आन्तर ध्यान द्वारा परमात्मा से अभेद होने की प्रेरणा कर रहे हैं - हे साधक ! अपनी वृत्ति को विषयों से उठाकर सद्गुरु शब्दों में मिला अर्थात् लगा । चित्त से आत्म - चिन्तन कर, शरीर का अध्यास छोड़ कर, शरीर को आत्मा का विवर्त्त जान । मन से ब्रह्मात्मा के अभेद की बोधक युक्तियों का मनन कर । इच्छा भी ब्रह्म साक्षात्कार की ही कर और तेरा मन्तव्य भी आत्माराम की प्राप्ति ही हो बुद्धि से ब्रह्म - विचार ही कर । पँच ज्ञानेन्द्रिय, पँच कर्मेन्द्रिय और पँच प्राणों को भी आत्म - परायण कर अर्थात् इन सबको आत्म - तत्व प्राप्ति के साधन रूप कार्यों में लगा । इस प्रकार स्थूल - सूक्ष्म सँघात को आन्तर आत्माराम में ही लगा, आत्माराम को छोड़कर अन्यत्र मत जाने दे ।
दादू तन मन पवना पँच गहि, ले राखै निज ठौर ।
जहां अकेला आप है, दूजा नाहीं और ॥२८२॥
साधक को चाहिए - हिंसादि से शरीर को, साँसारिक वस्तुओं के मनन से मन को, प्राणायाम से प्राणों की शीघ्रगति को, प्रत्याहार से ज्ञानेन्द्रियों को, मिताहार से कर्मेन्द्रियों को रोके और आन्तरमुखता रूप हाथ से ग्रहण करके फिर जहां पर अपने आत्म स्वरूप ब्रह्म से भिन्न दूसरा कोई भी नहीं है, अद्वैत स्वरूप आप ही है, उसी निजात्म - रूप स्थल में सबको स्थिर करके रक्खे ।
दादू यहु मन सुरति समेट कर, पँच अपूठे आणि ।
निकट निरंजन लाग रहु, संग सनेही जाणि ॥२८३॥
साधक ! इस मन की सँसार में फैली हुई वृत्तियों को एकत्र करके तथा पँच 
ज्ञानेन्द्रियों को विषयों से लौटा कर ला । फिर व्यापक होने से अत्यन्त समीप निरंजन राम को अपना सदा का साथी और स्नेही जान कर उसी के चिन्तन में लगा रह । 
(क्रमशः)

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