बुधवार, 7 दिसंबर 2016

=१३७=

卐 सत्यराम सा 卐
साहिब जी की आत्मा, दीजे सुख संतोंष ।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

रसायनशास्त्री नागार्जुन एक राज्य के राज वैद्य थे। 

एक दिन उन्होंने राजा से कहा, ‘मुझे एक सहायक की जरूरत है।’

राजा ने उनके पास दो कुशल युवकों को भेजा और कहा कि उनमें से जो ज्यादा योग्य लगे उसे रख लें। 

नागार्जुन ने दोनों की कई तरह से परीक्षा ली पर दोनों की योग्यता एक जैसी थी। 

नागार्जुन दुविधा में पड़ गए कि आखिर किसे रखें।

अंत में उन्होंने दोनों युवकों को एक पदार्थ दिया और कहा, ‘इसे पहचान कर कोई भी एक रसायन अपनी इच्छानुसार बनाकर ले आओ। 

हां, तुम दोनों सीधे न जाकर राजमार्ग के रास्ते से जाना।’

दोनों राजमार्ग से होकर अपने-अपने घर चले गए। 

दूसरे दिन दोनों युवक आए। उनमें से एक युवक रसायन बना कर लाया था जबकि दूसरा खाली हाथ आया था।

आचार्य ने रसायन की जांच की। 

उसे बनाने वाले युवक से उसके गुण-
दोष पूछे। 

रसायन में कोई कमी नहीं थी। 

आचार्य ने दूसरे युवक से पूछा, ‘तुम रसायन क्यों नहीं लाए?’ 

उस युवक ने कहा, ‘मैं पहचान तो गया था मगर उसका कोई रसायन मैं तैयार नहीं कर सका। 

जब मैं राजमार्ग से जा रहा था तो देखा कि एक पेड़ के नीचे एक बीमार और अशक्त आदमी दर्द से तड़प रहा है। 

मैं उसे अपने घर ले आया और उसी की सेवा में इतना उलझ गया कि रसायन तैयार करने का समय ही नहीं मिला।’

नागार्जुन ने उसे अपना सहायक रख लिया। 

दूसरे दिन राजा ने नागार्जुन से पूछा, 

‘आचार्य। जिसने रसायन नहीं बनाया उसे ही आपने रख लिया। ऐसा क्यों?’ 

नागार्जुन ने कहा, ‘महाराज दोनों एक रास्ते से गए थे। एक ने बीमार को देखा और दूसरे ने उसे अनदेखा कर दिया। 

रसायन बनाना कोई जटिल नहीं था। 

मुझे तो यह जानना था कि दोनों में कौन मानव सेवा करने में समर्थ है।

बीमार व्यक्ति चिकित्सक की दवा से ज्यादा उसके स्नेह और सेवा भावना से ठीक होता है, 

इसलिए मेरे काम का व्यक्ति वही है जिसे मैंने चुना है।’
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(((((((((((जय जय श्री राधे))))))))))))
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