बुधवार, 7 दिसंबर 2016

= विन्दु (२)८८ =

॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)**
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८८ =**

फिर पास बैठे हुये लक्ष्मीदास ने पूछा - स्वामिन् ! सद्गुरु क्या करते हैं ? लक्ष्मीदास का उक्त प्रश्न सुनकर संत प्रवर दादूजी महाराज ने यह साखी कही - 
**= लक्ष्मीदास के प्रश्न का उत्तर =** 
सद्गुरु पशु मानुष करैं, मानुष तैं सिध होय । 
दादू सिध तैं देवता, देव निरंजन होय ॥" 
सद्गुरु उपदेश द्वारा पशु - तुल्य पामर मनुष्य को मानवता के लक्षणों से संपन्न करके वास्तविक मनुष्य बना देते हैं और वह मनुष्य सद्गुरु के बताये हुये योग साधन द्वारा सिद्ध हो जाता है । सिद्धावस्था की परिपाकावस्था में वही दिव्यगति वाला अर्थात् दूसरों के मन की बात को जानने वाला देवता हो जाता है और देवभाव की परिपाकावस्था में निर्जन ब्रह्मरूप हो जाता है । फिर पास में बैठे हुये माधव ने पूछा - स्वामिन् ! सद्गुरु कैसा करना चाहिये ? तब दादूजी महाराज ने कहा - 
**= माधव के प्रश्न का उत्तर =** 
"सद्गुरु ऐसा कीजिये, राम रस माता । 
पार उतारे पलक में, दर्शन का दाता ।" 
जो राम - भक्ति रस में मस्त हो और अपने उपदेश द्वारा एक क्षण में ही संसार - सागर से पार उतार कर राम का दर्शन कराने वाला हो, ऐसे व्यक्ति, को ही सद्गुरु बनाना चाहिये फिर पास बैठे हुये केशव ने पूछा - स्वामिन् ! आत्म ज्ञान किस में होता है ? तब दादूजी ने कहा - 
**= केशव के प्रश्न का उत्तर =** 
"आतम माँहीं ऊपजे, दादू पंगुल ज्ञान । 
कृत्रिम जाय उलंघ कर, जहां निरंजन थान ॥" 
गुरु की कृपा से भक्ति संपन्न बुद्धि में गुण रूप चरण शक्ति से रहित आत्म ज्ञान उत्पन्न होता है । उस के बल से साधक अपने बनावटी 'मैं तू" आदि संसार का उल्लंघन करके जिस अवस्था में निरंतर अद्वैत भावना ही रहती है, उस अवस्था रूप निरंजन ब्रह्म के स्थान को प्राप्त होता है । फिर केशव दादूजी के शिष्य हो गये । ये सौ शिष्यों में द्वितीय केशवदासजी हैं । फिर पास में बैठे हुये धर्मदास ने पूछा - स्वामिन् ! साधक सहज स्वरूप ब्रह्म में कैसे समाता है ? तब दादूजी ने कहा -
** धर्मदास के प्रश्न का उत्तर =** 
"दादू शब्द विचार कर, लाग रहे मन लाय । 
ज्ञान गहै गुरुदेव का, दादू सहज समाय ॥" 
गुरु के शब्दों का विचार करते हुये मन लगा-कर, ब्रह्म चिन्तन में ही लगा रहे और गुरुदेव का अभेद - ज्ञान ग्रहण करे तो अवश्य सहज स्वरूप ब्रह्म में ही समा जाता है । धर्मदास-जी पहले ही दादूजी के शिष्य थे केवल प्रसंग वश प्रश्न कर दिया था । ये सौ शिष्यों में हैं । मोरड़ा के उक्त सभी भक्तों ने दादूजी के सत्संग से अपने संशय निवृत्त करके भगवान् की भक्ति धारण की थी । कारण ? इन्होंने दादूजी की कृपा से मोरड़ा तालाब तट का सूखा बट वृक्ष हरा हुआ देखा था और दादूजी के विचित्र अनुभव युक्त वचन भी सुने थे । इससे उनकी दादूजी पर अटूट श्रद्धा थी । 
(क्रमशः)

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