मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

= १३५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दोष अनेक कलंक सब, बहुत बुरे मुझ मांहि ।
मैं किये अपराध सब, तुम तैं छाना नांहि ॥ 
गुनहगार अपराधी तेरा, भाजि कहाँ हम जाहिं ।
दादू देख्या शोध सब, तुम बिन कहीं न समाहिं ॥ 
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo

आलस्य मनुष्यका शत्रू है। बिना आचार-विचार और यम-नियमों सहित साधना के कोई और उपाय नहीं। 
बिनु हरि-भजन न भव तरिय। यह सिध्दान्त अपेल।।
(नाम जप सबसे आसान है और उसमें कोई नियम नहीं फिर भी यम नियमोंके बिना वह भी असंभव है...!!! एक तरफ आप परम पवित्र भगवान को निमंत्रण दो और काम, क्रोधादि से अपनी मैत्री जारी रखो.... तो क्या भगवान आयेंगे...?? गंदे घर में सामान्य मनुष्य भी जायेगा नहीं।) 
संत कहते हैं कि भगवान के सामने नवजात शिशु की तरह सरल बच्चे बनो... !!!! जन्म-जन्मान्तरों के विकृतियों को जीव इकठ्ठा कर सरल कैसे बने....???? पहले सत्संग(टीव्ही वाले नहीं.... सच्चे संतों को ढूँढो और खुद अच्छे बनो.... तब मिलेंगे.... !!!! अंदर कपट भरकर संतदर्शन संभव नहीं।)
भगवान की कथा निरपेक्ष संतों के मुख से सुनो.... तो भगवान के प्रति उनके प्रेम का अंश मिलेगा, वो भी बिना निष्कपट सेवा के नहीं.... !!!!! वे निरपेक्ष ही होते हैं लेकिन उनकी प्रेम से, निरहंकार भाव से सेवा करते रहो तो प्रसन्न होते हैं... उनके पहले भगवान प्रसन्न होते हैं.... ठीक ऐसे जैसे बच्चे को लाड-प्यार करो तो उसकी माँ को प्रसन्नता होती है। संतोंके हृदय में उनकी भगवान के प्रति अकिंचन-भक्ति से भगवान का निवास होता है... वे दिन-रात भगवान की लीला कथाओं में ही रमण करने से उनके पास भगवान की उपस्थिती रहती है... !!! उनकी सेवा-सत्संग से भगवान को पाने का मार्ग सुगमता से मिलता है.... !!!! स्वयम् के प्रयत्नों से बहुत समय लगेगा और पतन/अहंकार का खतरा निरंतर रहेगा।
मनुष्य कुछ किये बिना ही सब कुछ पाना चाहता हैं.. जैसे पांच पैसे की अगरबत्ती दिखाकर कहे... 
'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा.... और पाप-ताप मिटाओ.... !!!'
अब ये पदगान ..
'राधे तेरे चरणोकी गर धूल जो मिल जाये.... '
गाकर तुम्हें परमेश्वरी राधाजी की चरणधूली तो क्या उनके सखीयों की भी नहीं मिलेगी यदि तुमने अपने आपको उनकी दासियों के दासीयों की दासता को न चाहते हुए अपने को उनकी चरणधुली के योग्य बनाने का प्रयत्न न किया तो... !!!! आपके प्रयत्न/लगन/उत्कट चाह तथा साँसारिक विषयों का त्याग से उनकी कृपा के द्वार खुल सकते हैं। गँदे पात्र में कोई अमृत तो क्या जल भी डालना पसँद नहीं करेगा।
आलस्य छोडो और आचार-विचारों/यम-नियमों के पालनपूर्वक ईश्वरराधन आरंभ करो। ईश्वराराधन में भगवान की लीला-कथाओं का कथन-श्रवण, नाम-संकिर्तन तथा भगवान के विग्रहों की पूर्ण प्रेम और श्रध्दा से पूजा-अर्चा.... सभी जीवों का आदर.... सेवा रूप साधन-भजन करने से ईश्वरप्राप्ति का मार्ग खुलने लगता है।

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