卐 सत्यराम सा 卐
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
**= परिचय का अँग ४ =**
मन चित मनसा आतमा, सहज सुरति ता माँहि ।
दादू पँचों पूरले, जहं धरती अम्बर नाँहि ॥२८४॥
साधक को चाहिए - मन को मायिक मनन से, चित्त को विषय - चिन्तन से, बुद्धि को व्यावहारिक विचारों से, पँच ज्ञानेन्द्रियों को विषयासक्ति से हटा कर, सहज स्वरूप ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा शरीर के भीतर जहां पृथ्वी - आकाशादि विकारों से रहित आत्म - स्वरूप ब्रह्म है, उसी में सबको लय करे ।
.
दादू भीगे प्रेम रस, मन पँचों का साथ ।
मगन भये रस में रहे, तब सन्मुख त्रिभुवननाथ ॥२८५॥
प्रथम साधक का मन पँच ज्ञानेन्द्रियों के सहित प्रभु - प्रेम - रस से भीगता है अर्थात् प्रेम युक्त होता है । उस प्रेम - रस की वृद्धि होने पर मन व इन्द्रियां उसी के आनन्द में निमग्न रहने लगते हैं, तब त्रिभुवननाथ परमात्मा उस साधक को प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं ।
.
दादू शब्दैं शब्द समाइ ले, परमातम सौं प्राण ।
यहु मन मन सौं बँधि ले, चित्तैं चित्त सुजाण ॥२८६॥
साधक को चाहिए - अनाहत नाद के श्रवण करने की प्रेरणा रूप गुरु के शब्दों से अपने श्रवण इन्द्रिय को आन्तर अनाहत नाद श्रवण करने में लीन करे । ईश्वर के स्वरूप मनन द्वारा अपने चित्त को ईश्वर के चित्त में लीन करे और विचार द्वारा प्राणधारी जीवात्मा को परमात्मा में लीन करे ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें