सोमवार, 18 सितंबर 2017

आज्ञाकारी आज्ञा भंगी का अंग ७(९-१२)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*निकटि निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव ।*
*दादू पीवै राम रस, निहकामी निज सेव ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी आज्ञा भंगी का अंग ७**
आज्ञा में अनमोल१ है, अन आज्ञा अढ़२ आघ३ ।
रज्जब रंग५ सु रजा४ में, विरच्यों६ बाल्हे७ बाघ८ ॥९॥
गुरुजनों की आज्ञा में रहने से व्यक्ति अति उत्तम१ माना जाता है । आज्ञा४ में न रहने से उसकी उत्तमता३ में कमी२ आ जाती है । सम्यक आज्ञा में रहने से ही आनन्द५ मिलता है । गुरुओं की आज्ञा मानने से विरक्त६ होने पर तो बहिमुर्ख७ होकर सिंह८ के समान भय-प्रद होता है ।
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गुरु की आज्ञा में रहै, सो शिष्य कोई एक ।
रज्जब रहे वन रोझ मन, आज्ञा भंग अनेक ॥१० ॥
गुरु की आज्ञा में रहने वाला शिष्य तो कोई विरला ही होता है । वन में रहने वाले रोझों के समान बहिमुर्ख मन आज्ञा भंग करने वाले, अनन्त मिलते हैं ।
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असली आज्ञा में चलैं, बाहर धरैं न पाँव ।
रज्जब कपटी कम असल, खेलैं अपना दाँव ॥११ ॥
सच्चे शिष्य आज्ञा में ही चलते हैं, आज्ञा के बाहर एक पैर भी चलते अर्थात कुछ भी नहीं करते । जो कपट से सच्चे बने हुये और वास्तव में झूठे, वे तो अपने स्वार्थ का दाँव खेलते हैं अर्थात स्वार्थ सिद्धि के लिए ही सब कुछ करते हैं, कल्याण के लिये कुछ नहीं ।
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रज्जब रहिये रजा में, गुरु गोविन्द हजूर ।
इनकी आज्ञा मेट तैं, देखत पडिये दूर ॥१२ ॥
गुरु और गोविन्द की आज्ञा में रहोगे तभी गुरु और गोविन्द समीप रह सकोगे, इनकी आज्ञा से बाहर जाने से तो देखते ही इनसे दूर पड़ जाओगे ।
(क्रमशः)

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