शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू तन मन पवना पंच गहि, ले राखै निज ठौर ।*
*जहाँ अकेला आप है, दूजा नांही और ॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संतजन अपने तन, मन, प्राण और पंच इन्द्रियों को निग्रह करके स्वस्वरूप में लय लगाते हैं । और वह निज ठौर कैसा है ? जहाँ केवल ब्रह्मस्वरूप ही भासता है और द्वैतभाव का वहाँ पर अत्यन्त अभाव है । अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाओ ॥ 
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*दादू भीगे प्रेम रस, मन पंचों का साथ ।*
*मगन भये रस में रहे, तब सन्मुख त्रिभुवन - नाथ ॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब मन पंचों इन्द्रियों आदिक सहित प्रेम रस में ब्रह्म - परायण हुआ, तो फिर "मगन भये रस में रहे'' अर्थात् भगवान् के प्रेम में तल्लीन होकर एकरस होते हैं । फिर उसके त्रिलोकीनाथ वश हो जाते हैं ॥ 
माठा तुरंग "हुसेन'' मन अड़ा प्रेम की खोड़ । 
पग न धरे मग चलन को, ताजण टूटे करोड़ ॥ 
बालम चक्कर - व्यूह भो, मो मन अहमन नित्त । 
प्रेम प्रवेशा शिष्य यूं, निकसन जानत चित्त ॥ 
हुसेन भक्त कहता है - मेरा मन मादा और अड़ियल घोड़ा है जो प्रभु प्रेम की सँकड़ी गली(खोड़) में अड़ गया है । लोगों ने इसे बिरत करने हेतु बहुत प्रयत्न किये, अनेकों ताड़नाओं के चाबुक मार - मार कर तोड़ डाले, पर यह भक्ति - मार्ग से एक कदम भी नहीं हटा । गुरुपदेश से शिष्य का मन अभिमन्यु(अहमन) की भाँति प्रियतम प्रभु के प्रेमरूपी चक्रव्यूह में फँस तो गया, अब वह उससे निकल नहीं सकता ।
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*

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