सोमवार, 18 सितंबर 2017

= ५४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*साधु मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि का हेत ।*
*दादू संगति साधु की, कृपा करै तब देत ॥* 
===========================
साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo
हमारे भारत का प्राचीन इतिहास अति दिव्य रहा ।आत्म-परमात्म विचार यहाँ के अणुरेणुओं में व्याप्त हैं क्योंकि ये देश उन महान ऋषिमुनियों का है जिन्होने आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये इस धरती पर सर्वत्र तपस्या की है और संत-महापुरूषो ने भी उसे वनांतरों में तपस्या के द्वारा या संसार में रहकर विवेकपूर्ण वैराग्य-आचरण, सत्-असत् विवेकबुध्दि के विश्लेषण से भगवान की भक्ति को ही एकमात्र मानवजीवन का सार समझ कर प्राप्त किया तथा उसे समाज में वितरित किया। 
.
यहाँ के अणुपरमाणुओं में आत्म-परमात्म ज्ञान व्याप्त है और भक्ति के संस्कार सहज है। भारत में भगवान द्वारा रची आश्रम व्यवस्था के नियमों से जीवों को मार्गदर्शन मिलता है और उन नियमों से चलने पर जीवन के सारे पुरुषार्थ(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सहज सुलभ हो जाते हैं।
.
चक्रवर्ती सम्राट महाराज चित्रकेतु को देवर्षि नारद ने उनके मृत पुत्र का आवाहन कर ज्ञान दिलाकर उनमें वैराग्य उत्पन्न किया और उसके बाद उन्हें भगवान संकर्षन का मंत्र दिया। उसके सात रात्र जप करने से महाराजको भगवान संकर्षण के पास प्रत्यक्ष जाकर दर्शन की उपलब्धि हुई। उन्होंने भगवान की स्तुति की और भगवान ने उन्हें अद्वयज्ञान के उपदेश से कृतकृत्य किया।
.
उस उपदेशका सार यही हैं कि... 
इस संसारके स्त्री पुरुष सुखप्राप्ति के लिये और दुःख की निवृत्ति के लिये दिन-रात अथाह परिश्रम करते तो हैं, लेकिन न तो उन्हे उस निरतिशय सुख की ही प्राप्ति होती हैं न ही कभी उनके दुःख की निवृत्ति हुई। जो लोग अपने आपको बहुत बडा बुध्दिमान मानकर संसार के कर्मों के पचडों में पडे हुए हैं, उनको उनकी अपेक्षाओं के विपरीत फल मिलते हुए देखा है। आत्मा का स्वरूप जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं के परे हैं और तत्वदर्शी महात्माओं की सेवासुश्रुषा से ही उसे प्राप्त किया जा सकता हैं। ये ज्ञानमार्ग है। 
.
संतों ने जनसाधारण के लिये भगवान की नवधा-भक्ति का मार्ग दिखाया है जो अत्यंत सरल हैं और उससे प्राप्ति भी सुनिश्चित हैं.... अर्थात यमनियमों का सावधानी से पालन कर। उस किसान की तरह न करे जिसने एक भेड को उन प्राप्त करने के लिये पाला लेकिन ध्यान न देने से वह भेड उसके कपास को खा गई। वासनारुप भेड पर ध्यान दो वरना वो आपके भक्ति/तपस्या के फलों को खा जायेगी। जीव का स्वार्थ/परमार्थ(परम पुरुषार्थ) यही है की वह इस देह के रहते आत्म-परमात्म के ऐक्य को प्राप्त कर ले.... चाहे भगवान की अहैतु की भक्ति से या विवेकज्ञान से.... अन्यथा उसे महान भय प्राप्त होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें