रविवार, 17 सितंबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*चोर अन्याई मसखरा, सब मिलि बैसैं पांति ।*
*दादू सेवक राम का, तिन सौं करैं भरांति ॥११९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी संसारीजन जातीय पक्षपात करके चोर, अन्यायी, मखौली, सबको अपनी पंगति में बैठाते हैं, किन्तु परम पवित्र भक्तों से भ्रान्ति करते हैं । तथापि मुमुक्षुजन, "ईश्‍वर की ही व्यापकता का निश्‍चय करके सब प्राणियों में समता का भाव रखते हैं ॥११९॥"
धाम सौंप शिष्य को, गयो तीरथ बद्रीदास ।
फिर आयो बहु काल में, रोटी देत उदास ॥ 
दृष्टान्त - एक बद्रीदास नाम का बैरागी साधु था । उसके मन्दिर, जमीन जायदाद बहुत थी । उसके एक चेला था । चेला जब बड़ा हो गया, तब बद्रीदास बोले - "भाई ! यह मन्दिर, जमीन, जायदाद, यह नकद रुपया, तू संभाल और मैं चार धाम तीर्थ करने जा रहा हूँ ।" बद्रीदास यात्रा करने चल पड़े । जहाँ - तहाँ भ्रमण करता हुआ चारों धाम करके बहुत काल में वापिस लौटा । पीछे से चेले ने अपनी शादी कर ली । दो चार बाल - गोपाल हो गये । परन्तु उसकी स्त्री बड़ी फूहड़ थी । कहीं मन्दिर में मक्खियां भिन - भिना रही हैं, कहीं गन्दगी पड़ी है, कहीं जूठे बर्तन पड़े हैं, कहीं कुत्ते चाट रहे हैं । ‘फूहड़ चालै नौ घर हालै’ - ऐसा हाल हो रहा था । उधर से बद्रीदास जी सांयकाल को आये । जब मन्दिर में घुसने लगे, तब वह बोली - "कहाँ घुसता है अन्दर ? कुछ उठा कर ले जाएगा क्या ? बाहर बैठ ।" बद्रीदास इधर - उधर देखने लगे । 
इतने में चेला आया, बद्रीदास को नमस्कार, प्रणाम नहीं किया और टेढा - मेढा देखता हुआ मन्दिर में चला गया । तब बद्रीदास बोले - "भाई ! देख, ठाकुर जी का मन्दिर है, इसमें पवित्रता रहनी चाहिये । पहले हम कैसी पवित्रता रखते थे । अब यह तैंने क्या कर रखा है ?" चेला बोला - "अब ठाकुर जी इसी प्रकार राजी हैं, तुम्हारी पवित्रता से राजी नहीं हैं । अपनी पवित्रता अपने पास रखो ।" दो रोटी फेंक कर मारी "खाले, खानी हैं तो; नहीं तो अपनी झोंपड़ी अलग बांध ले ।" रोटी देने में भी उदासीनता दिखलाता है । स्त्री के भाई - बन्धु आये, उनसे प्यार करने लगा । बद्रीदास देखकर उदास हो गये । सांसारिक प्राणी राम के सेवकों से भ्रान्ति करते हैं ।
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*अपना अपना कर लिया, भंजन मांही बाहि ।*
*दादू एकै कूप जल, मन का भ्रम उठाहि ॥१२३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! एक कूप के जल को, अपने अपने बर्तन में भरकर संसारीजन अपने अपनेपन का मिथ्या अभिमान करते हैं । इसी तरह जाति - पांति, ऊँच - नीच, भेद - भाव, नाम रूप, अनेक नाम, अनेक रूप, आदि का मिथ्या भ्रम उठाकर झगड़ते हैं । इसको तत्त्वज्ञान से अर्थात् आत्म - विचार से दूर करिये । क्योंकि चैतन्य सत्ता सबमें समान रूप से ही विद्यमान है ॥१२३॥ 
**(श्री दादूवाणी ~ सांच का अंग)**

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