सोमवार, 18 सितंबर 2017

= साँच का अंग =(१३/११८-२०)

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卐 सत्यराम सा 卐

*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साँच का अंग १३*
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जब पूरण ब्रह्म विचारिये, तब सकल आतमा एक ।
काया के गुण देखिये, तो नाना वरण अनेक ॥११८॥
जब व्यापक ब्रह्म का विचार करते हैं, तब तो सभी आत्मा ब्रह्म रूप होने से एक है और जब शरीरों के गुण - धर्म देखते हैं तो कोई तम, कोई रज, और कोई सतोगुण सँस्था के गुणों वाले होने से नाना गुण तथा श्याम, गौर, गेहुंआ आदि नाना वर्ण वाले दिखाई देते हैं किन्तु गुण और वर्ण परिवर्तनशील होने से विनाशी हैं और ब्रह्मात्म दृष्टि सत्य है ।
*अमिट पाप - प्रचँड*
भाव भक्ति उपजे नहीं, साहिब का परसँग ।
विषय विकार छूटे नहीं, सो कैसा सतसंग ॥११९॥
११८ - ११९ में कहते हैं - प्रचँड पाप अमिट हो जाता है - सत्संग में बैठने पर भी जिसके मन से न विषय - विकार हटते, न सन्तों में भाव होता, न हृदय में भगवद भक्ति उत्पन्न होती और न भगवान से सम्बन्ध होता, वह कैसा सत्संग है ? अर्थात प्रचंड पापियों को सत्संग से भी लाभ नहीं होता ।
बासण विषय विकार के, तिनको आदर मान ।
संगी सिरजनहार के, तिन सौं गर्व गुमान ॥१२०॥
जो विषय - विकारी मनुष्यों को तो आदर सम्मान देते हैं, परन्तु परमेश्‍वर के भक्तों से गर्व, गुमान और द्वेष रखते हैं तथा शरीर बल और सौंदर्य का गर्व करते हैं उनके संसार - बन्धन और जन्म - मरण के दुःख कभी नहीं कटेंगे ।
(क्रमशः)

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