शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

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*गरथ न बांधै गांठड़ी, नहीं नारी सौं नेह ।* 
*मन इंद्री सुस्थिर करै, छाड़ सकल गुण देह ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु* *वैराग्य*
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नारनौल के दादूपंथी सन्त रामकरणजी अपने आश्रम में नारी को नहीं आने देते थे । यदि मार्ग में भी कही दृष्टि पड़ जाती तो आँखे बन्द करके वहां खड़े हो जाते थे । एक दिन एक बाई उनके दर्शन करने को आई । वे कुटिया की छत पर थे । बाई ज्यों ज्यों ही उनकी ओर बढती, त्यो त्यों ही वे पीछे सरकते गये, इससे छत से नीचे गिर पड़े । चोट भी आई । 
उनकी चोट के कष्ट को देखकर लोगों ने कहा - भगवन् ! बाई केवल आपके चरण ही तो छूना चाहती थी, छू लेने देते इससे आपका क्या बिगड़ता था ? अब यह चोट का दु:ख भी भोगना पड़ेगा । रामकरणजी ने कहा बाई के चरण छूने से होने वाले दु:ख के सामने चोट का दु:ख कुछ भी नहीं है । इसे तो मैं सहर्ष भोग लूँगा किन्तु वह मेरे लिये असहाय था ।
विरक्त कामनी से सदा, दूर ही रहें सुजान ।
रामकरण छत से गिरे, कहा न इसमें हान ॥१९८॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
### सत्यराम सा ###

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