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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग सोरठ १९(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३१० - उपास्य परिचय । वर्ण भिन्न ताल
सोई देव पूजेँ, जे टाँछी नहिं घड़िया,
गर्भवास नहीं औतरिया ॥टेक॥
बिन जल सँजम सदा सोइ देवा,
भाव भक्ति करूँ हरि सेवा ॥१॥
पाती प्राण हरि देव चढ़ाऊँ,
सहज समाधि प्रेम ल्यौ लाऊँ ॥२॥
इहि विधि सेवा सदा तहं होई,
अलख निरंजन लखै न कोई ॥३॥
ये पूजा मेरे मनि मानैं,
जिहि विधि होइ सु दादू न जानै ॥४॥
अपने उपास्य देव का परिचय दे रहे हैं - मैं उसी उपास्य देव की पूजा करता हूं, जो टाँकी से नहीं गढ़ा गया है, गर्भवास द्वारा अवतार नहीं लिया है ।
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जिसका बिना जल ही स्नान होता है तथा सदा ही सँयम बना रहता है, वही मेरा उपास्य - देव है । उस हरि की श्रद्धा भक्ति द्वारा ही मैं पूजा करता हूं ।
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उस मेरे उपास्य देव हरि के प्राण रूप तुलसी - दल चढ़ाता हूं । प्रेम पूर्वक उसमें वृत्ति लगाकर सहज समाधि द्वारा उसके पास रहता हूं ।
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इस प्रकार मेरे हृदय में सदा सेवा - पूजा होती रहती है । मेरा उपास्य देव अलख और निरंजन है, उसे चर्म - चक्षुओं से कोई भी नहीं देख सकता ।
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मेरे मन को यह उक्त प्रकार की पूजा करना ही अच्छा लगता है किन्तु उस देव की यह पूजा जिस प्रकार होनी चाहिये वो जिस प्रकार करने से उसे प्रिय लगे सो तो वही जानता है, मैं नहीं जानता । आमेर नरेश मानसिंह ने पूछा था, आप किस देव की पूजा करते हैं ? उसी का उत्तर इस पद से दिया था ।
(क्रमशः)
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