गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

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*जे तूं राखै सांइयां, तो मार सकै ना कोइ ।*
*बाल न बांका कर सकै, जे जग बैरी होइ ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- वंचकता
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तीन ठग एक गांव के पास साधु वेश में आये और वन तथा गांव के मध्य में दो दो फर्लाग की दूरी पर दो तो आसन लगाकर बैठ गये और एक को गांव में भेजा । उसने एक धनाढ्य वैश्य भक्त को सन्तों के दर्शन के लिये प्रेरणा की । भक्त भी साथ हो लिया ।
जब गांव से कुछ दूर निकले तो पहला ठग बोला - "केशव-केशव अर्थात कैसा है दरिद्र है या धनाढ्य ।" भक्त के साथ वाले ने कहा - "धनुषधारी-धनुषधारी अर्थात धनी है ।" यह सुनकर उससे अगला बोला - "वनमाली वनमाली अर्थात वन में ले आओ ।"
यह सब सुनकर सेठ ने यह सोचा कि संत अपने अपने इष्ट का नाम ले रहे है मुझे भी अपने अपने इष्ट का नाम धोष करना ही चाहिये । वह बोला - "जानराय जानराय ।" ठगों ने सोचा कि यह जान गया है कि, ये साधु नहीं ठग हैं । इससे तीनों ठग भाग गये और वैश्य बच गया ।
वंचक आशा पूर्ण हो, सब थल नहीं सुजान ।
वंचक से भल मनुज को, बचा लेत भगवान ॥१२५॥

 

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