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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१५. माया कौ अंग ~ ९७/१००*
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मछली मरै न जल थंभै, बिन बिवेक बहि जाइ ।
हरि भजि सरवर तारिये, जगजीवन घरि आइ ॥९७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ना तो यह मन रुपी मछली मरती है ना संसार रुपी जल रुकता है । इसमें पार पाने का एक ही मार्ग है कि प्रभु स्मरन हो ।
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तन घेर्या मन बहि गया, हरिपद गह्या न मूल ।
कहि जगजीवन रांम जी, तुम बिन ए सब सूल ॥९८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह को तो घेर कर ले भी आये शरण में पर मन तो मूल तत्व से भागता है, प्रभु आपकी शरण न मिलना ही सबसे बड़ा दुख है ।
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प्रव्रिति सूल बम्बूल की, बिखर रही सब ठांम ।
चित में चुभै अयान के, जगजीवन बिन रांम ॥९९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव की प्रवृत्ति तो बंबूल के बिखरे कांटों सी है जो मूर्ख जीव को बिना प्रभु शरण के चुभते रहते हैं ।
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प्रव्रिति अगनि जगाइ मन, जिहिं तन दिया१ लगाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, है कोई आंणै ताहि ॥१००॥
{१. दिया=दीपक(ज्ञान प्रकाश)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन की प्रवृत्ति तो नाना प्रकार की ऐसी
क्लैश अग्नि उत्पन्न करती है जो देह को दग्ध करती रहती है । कोइ ऐसा सद्गुरु ही है जो उस अग्नि से ज्ञान दीपक जगा लेते हैं । इससे ही जीव का उद्धार है ।
(क्रमशः)
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