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*प्राणी परि पूजा करै, पूरै प्रेम विलास ।*
*सहजैं सुन्दर सेविये, लागी लै कविलास ॥*
*रैण दिवस दीसै नहीं, सहजैं पुंज प्रकास ।*
*दादू दर्शन देखिये, इहि रस रातो हो दास ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २४७)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*रामानुज गुरु भ्रातश्रुति धामादि*
*मूल छप्पय –*
*संत च्यार दिगपाल,*
*भूमि भक्ति चांपें१ भपें१ ॥*
*श्रुतिधामा श्रुतिदेव,*
*पराजित२ पुष्कर जानू ।*
*श्रुतिप्रज्ञा श्रुति उदधि,*
*ऋषभ गज वामन मानो ॥*
*रामानुज गुरु भ्रात,*
*प्रकट आनँद के दाता ।*
*सनकादिक सम ज्ञान,*
*शंकर संहिता राता ॥*
*बुध उदार इंदिरा३ पधित४,*
*शत्रु चलाये ना चलैं ।*
*संत च्यार दिगपाल,*
*भूमि भक्ति चांपें भपें ॥१४३॥*
श्रुतिधामा श्रुतिदेव, श्रुतिप्रज्ञा और श्रुतिउदधिजी, ये चार संत चार दिग्गजों के समान भक्ति रूप भूमि को भली भांति दबाये१ रहते हैं । श्रुतिधामा और श्रुतिदेव जी अपराजित२ और पुष्कर दिग्गज के समान हैं । श्रुतिप्रज्ञा और श्रुतिउदधिजी ऋषभ और वामन दिग्गज के समान हैं ।
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ये चारों रामानुजाचार्य के गुरु भाई हैं और अपने दर्शन तथा भक्ति पूर्ण वचनामृत के द्वारा सबको आनन्द प्रदाता हैं । शिव संहिता में जैसा वर्णन है, उसी प्रकार सनकादि चारों भाइयों के समान चारों संतों में परस्पर प्रेम है तथा चारों ही ज्ञानी हैं अथवा शंकर संहिता(अध्यात्म रामायण) में कथित राम के स्वरूप में सनकादिकों के समान अनुरक्त रहते थे ।
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ये चारों ही विद्वान्, उदार और श्री३ संप्रदाय की पद्धति४ में अडिग थे । कामादिक आन्तर और बाह्य शत्रुओं के द्वारा डिगाने पर भी ये अपनी निष्ठा से लेशमात्र भी नहीं डिगते थे । इसीसे इन्हें दिग्गजों के समान कहा गया है ।
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*१.श्रुतिधामा –* परमोदार थे, भगवत् और भगवद् भक्तों में अभेद दृष्टि रखते थे । आप साधु समाज सहित प्रयाग गये थे । वहां एक दिन स्नान करके त्रिवेणी पर हरि कथा कह रहे थे । एक संत ने पूछा, भगवन् ! संगम पर सरस्वती का नाम ही सुना जाता है । देखने में तो नहीं आती । यह सुनकर आप ध्यानस्थ हो गये । फिर शीघ्र ही सबने देखा कि श्वेत गंगाधार और श्याम यमुनाधार के बीच में तेजमय अरुणधार सरस्वती की दीख रही है । यह देखकर सभी कल्पवासी दौड़-दौड़ स्नान करने लगे । संतों ने आपको कहा तब आप भी उठे और प्रणाम करके साधुओं के सहित स्नान करने लगे ।
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*२.श्रुतिदेव –* संत समाज के साथ हरि नाम कीर्तन करते हुये विचरा करते थे । एक समय एक अभक्त राजा के नगर में जा पहुँचे । वहां नदी या तालाब तो था नहीं, राजा के बगीचों में कूप तथा बावड़ी थी । संत उन पर स्नान करने लगे तो मालियों ने रोक दिया । संतों ने श्रुतिदेवजी को कहा । उन्होंने कहा – बिना स्नान ही हरि कीर्तन करलो और इस नगर को छोड़ चलो । इधर संत तो भजन करने लगे और उधर कूप तथा बावड़ियों में जल नहीं रहा ।
मालियों ने राजा को कहा । राजा ने मन्त्रियों से पूछा । मंत्रियों ने पता लगाकर कहा – यहां साधु समाज आया है, उनको जल बर्तने से रोका गया है । इसी से जल सूखा है । इस समाज के मुखिया महात्मा श्रुतिदेव हैं । उन्हीं से प्रार्थना की जाय । राजा तथा प्रजा ने श्रुतिदेवजी से क्षमा माँगी और जल के लिये प्रार्थना करी । तब संतों की कृपा से पुनः पूर्ववत कूपादि में जल आ गया । उस देश को हरि भक्त बनाकर संत विचर गये ।
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*३.श्रुतिप्रज्ञा –* ब्राह्मण थे, छोटी अवस्था से ही विरक्त थे, हरि नाम में अति अनुरक्त थे । भक्तों में जाति भेद नहीं मानते थे । देशों के विचरते हुये हरि नाम का उपदेश किया करते थे । भक्ति को ही सबसे बड़ा आचार समझते थे । नीलाचल के मार्ग में एक अति प्रेमी श्वपच को साष्टांग करते देखकर आपने उसे उठाकर अपने हृदय के लगा लिया था । अपने वस्त्र से उसके शरीर की धूलि साफ की थी । उसके हाथों में महाप्रासाद था, सो लेकर सादर पा गये थे । रातभर उसको अपने पास रख के प्रातः अति आदर से उसे विदा किया था, फिर जगदीश के दर्शन करके सुयश-भाजन रहे थे और परम धाम को प्राप्त हुये थे ।
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*४.श्रुतिउदधि –* सभी सद्गुणों के समुद्र थे । एक समय आप गंगा की ओर जा रहे थे । मार्ग में एक राजा के बगीचे में रात्रि को निवास किया । उसी रात को राज-भवन में चोरी हुई । चोर भागते हुये बगीचे में आ निकले । एक चोर इनके गले में राजा की रत्न माल डाल गया ।
इससे राज पुरुष इनको पकड़ कर राजा के पास ले गये । राजा ने बन्दीगृह में भेज दिया । तब शीघ्र ही राजा के शिर में भारी पीड़ा होने लगी । किसी भी उपाय से नहीं मिटी तब मन्त्री के कहने से राजा इनकी शरण आकर चरणों में पड़ गया । इनने आँखें खोली और उसकी पीड़ा मिटाकर भगवन्नाम देके कृतार्थ कर दिया ।
(क्रमशः)
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