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*ज्यों घुण लागै काठ को, लोहा लागै काट ।*
*काम किया घट जाजरा, दादू बारह बाट ॥*
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श्री रज्जबवाणी
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*काम का अंग १५५*
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कीचक रावण ईन्द्र से, भस्मासुर सु विचार ।
जन रज्जब बीती बुरी, तकत पराई नार ॥१७॥
कीचक, रावण, इन्द्र और भस्मासुर की स्थिति का विचार करो, द्रौपदी, सीता, अहल्या और पार्वती इन पराई नारियों को कामुक दृष्टि से देखने पर उनकी कैसी बुरी दशा हुई । कीचक, रावण और भस्मासुर तो भीम, राम और मोहिनी द्वारा मारे गये । इन्द्र के शरीर में गोतम के शाप से सहस्त्र भग हो गये । यह प्रसिद्ध है ।
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रज्जब मदन भुवंग१ गति२, चितवनि३ चंपे खाय ।
मनसा वाचा कर्मना, नर देखो निरताय ॥१८॥
हे नरो ! काम और सर्प१ की चेष्टा२ को विचार करके देखो । सर्प तो दबने४ से खाता है और काम तो नारी को देखने३ मात्र से ही खा जाता है ।
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श्रवण नैन मुख नासिका, इन्द्री१ बहै अनंग ।
रज्जब जाय सु जतन२ में, बिना वामा३ परसंग ॥१९॥
यत्न२ से रहने पर भी बिना नारी३ प्रसंग के ही - कान में मैल रूप, नेत्र में गीड़ रूप मे, मुख और नासिका से कफ रूप में, शिश्नेन्द्रिय१ से वीर्य रूप में काम बहता ही रहता है ।
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मदन मेरु मधि ना रह्या, व्योम बीज१ जल धार ।
रज्जब अजर अनंग को, कौन सु जारनहार२ ॥२०॥
काम पर्वत में भी नहीं रह सका, जल के झरने की जल धारा रूप में निकलता है । आकाश में बिजली१ रूप में चमकता है । इस न हजम होने वाले काम को कौन हजम२ करने वाला है अर्थात कोई भी नहीं है ।
(क्रमशः)
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