शनिवार, 10 जुलाई 2021

*इन्द्रियों का अंग १५६(५/८)*

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*दादू यहु मन पंगुल पंच दिन, सब काहू का होइ ।*
*दादू उतर आकाश तैं, धरती आया सोइ ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*इन्द्रियों का अंग १५६*
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पंच पसारे पड़ि गये, कनक कामिनी मांहिं ।
रज्जब बीधे व्याधि में, क्यों ही निकसे नांहिं ॥५॥
पंच तत्त्वों के गुण पंच विषयों के विस्तार में पड़ गये हैं, इससे कनक कामिनी की कामना रूप घुण भीतर लग गया है और उससे बिंध गये हैं । अत: इस रोग में किसी भी नहीं निकल पाते ।
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जब पंचों पावन मते, तब ऊजल उर आब ।
रज्जब पंचों पंच दिशि, तब ही काम खराब ॥६॥
जब पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पवित्र विचार मार्ग में रहती है, तब हृदय की शोभा सुन्दर रहती है और जब पाँचों पंच विषयों की ओर दौड़ती है तब भगवत् प्राप्ति रूप कार्य के करने में खराबी आ जाती है ।
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गुण१ गयंद२ गजराज घड़ि, पड़े भाव३ दह आय ।
जन रज्जब गुण४ ऊठि करि, जल मैला ह्वै जाय ॥७॥
जिस घड़ी जल के दह में गजराज आकर पड़ता है, तब उसमें कीचड़ उठ कर जल मैला हो जाता है । वैसे ही इन्द्रिय१ रूप हाथियों२ की चंचलता मन३ में आती है तब विषय४-भावना उठकर विचार मलीन हो जाता है ।
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जब लग गरजै देह गुण, तब लग भक्ति न होय ।
रज्जब राम न पाइये, कोटि करै जे कोय ॥८॥
जब तक शरीर के गुण(इन्द्रिय) विषयों को प्राप्त करने के लिये गर्जते हैं और काम क्रोधादि गुणों की प्रबलता है, तब तक प्रभु की भक्ति नहीं होती और भक्ति बिना यदि कोई कोटि उपाय करे तो भी राम की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
(क्रमशः)

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