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*दादू खालिक खेलै खेल कर, बूझै बिरला कोइ ।*
*लेकर सुखिया ना भया, देकर सुखिया होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*रूप निहारत सुद्धि बिसारत,*
*मंदिर में रह जात न जानें।*
*शीत लग्यो जन कांप उठे हरि,*
*दे सिकलात१ उहै दुख भानें२ ॥*
*वेग लगे तट सिन्धु गये चलि,*
*चाहत नीर तबै प्रभु आनेँ ।*
*जान लिये हरि दूर करो दुख,*
*ईश्वरता तुम खोवत क्या नैं ॥३२७॥*
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माधवदासजी मंदिर में श्रीजगन्नाथजी के दर्शन के समय प्रेम से इकटक भगवान् का रूप देखते देखते शरीर की सुध बुध भूल जाते थे। हरि इच्छा से आप पंडों को दीखते नहीं थे, इससे मंदिर में ही रह जाते थे।
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एक दिन शीतकाल में आप मंदिर में नग्न ही रह गये। रात्रि में शरीर को अति शीत लगा। तब शीत से जगन्नाथजी भी कांप उठे और उसी क्षण पंडों को स्वप्न में कहकर बुलाया और कहा-एक नवीन शीत निवारण ओढने का वस्त्र (रजाई) लाओ। आ जाने पर आपने ओढा, फिर प्रसाद रूप में माधवदासजी को वह वस्त्र१ देकर उनका शीत का दुःख नष्ट२ किया। प्रभु का प्रसाद पाकर माधवदासजी भी प्रेम में निमग्न हो गये।
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एक समय माधवदासजी के अतिसार हो गया था। दस्तों के वेग बहुत आने लग गए थे। इससे आप समुद्र तट पर जाकर पड़ गये थे। जब आप ने शौच के लिये जल की इच्छा की तब स्वयं जगन्नाथ जी ही जल लेकर आये और वस्त्र तथा शरीर को साफ किया। माधवदासजी ने पहचान लिया कि ये तो भगवान् ही हैं।
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तब कहा- आप अपनी ईश्वरता से क्या नहीं खो सकते ? फिर मेरा दुःख ही दूर क्यों नहीं कर दिया ? यहाँ आपने कष्ट उठाया इससे तो अच्छा था कि यह रोग ही मेरे शरीर में न होने देते !
(क्रमशः)
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