बुधवार, 17 जुलाई 2024

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*दीवै दीवा कीजिये, गुरुमुख मार्ग जाइ ।*
*दादू अपने पीव का, दर्शन देखै आइ ॥*
*दादू दीये का गुण तेल है, दीया मोटी बात ।*
*दीया जग में चाँदणां, दीया चालै साथ ॥*
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*साभार ~ @Damodar Prasad*
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भूखो दुर्बल देखि नाहिं मुंह मोड़िए।
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िए ॥
दे आधी की आध अरध की कौर रे।
हरि हां, वाजिद
अन्न सरीखा पुन्य नाहिं कोइ और रे॥
भूखो दुर्बल देखि नाहिं मुंह मोड़िए।
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िए ॥
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अगर परमात्मा ने तुम्हें पूरी रोटी दी है, तो कम से कम आधी तो बांट दो।
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िए। दे आधी की आध...।
न दे सको आधी, तो आधी की आध सही। न दे सको आधी की आध, तो कम से कम अरध की कौर! कुछ तो बांट लो !
दे आधी की आध अरध की कौर रे।
हरि हां, अन्न सरीखा पुन्य नाहिं कोइ और रे॥
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तुम्हारे चारों तरफ लोग हैं, जिनके जीवन में बहुत तरह के दुख हैं- शरीर के दुख हैं, मन के दुख हैं, आत्मा के दुख हैं। कुछ भी बंटा लो, कोई भी दुख बंटा लो। किसी का दुख थोड़ा कम कर सको तो करो।
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लेकिन हम तो उलटा करते हैं, हम लोगों के दुख बढ़ा देते हैं, घटाने की तो बात और। हम जिस चित्त की महत्वाकांक्षा की दौड़ में जीते हैं, वहां लोगों के दुख बढ़ जाते हैं, घटते नहीं।
थोड़ा बांट लो दुख !
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मगर कौन बांट सकेगा दुख ? वही बांट सकेगा दुख दूसरों के, जिसके भीतर सुख का आविर्भाव हुआ हो। तुम खुद ही दुखी हो, तो क्या खाक तुम दूसरों के दुख बांटोगे।
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इसलिए मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम जाओ और लोगों की सेवा में लग जाओ। पहले तो मैं कहता हूं कि पहले तुम जागो। पहले वह जो रोटी, जिसकी बात कर रहे हैं वाजिद, तुम्हारे भीतर तुम्हारे हाथ तो लग जाए, फिर तुम बांट लेना- आधी बांटना, पूरी बांटना !
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और मैं तुमसे कहता हूं, जब हाथ लगती है वह रोटी, तो आधी कौन बांटने की फिक्र करता है, पूरी ही बांटता है ! क्योंकि उसके बांटने में वह और बढ़ती है। जितना बांटते हो, उतनी बढ़ती है भीतर की संपदा। जितना उलीचते हो, उतने नए-नए झरनों से रसधार तुम्हारे भीतर बही चली आती है।
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जो बांटने से घट जाए, वह तो प्रेम नहीं। जो बांटने से घट जाए, वह तो संपदा नहीं। लेकिन पहले हो। हो सकती है, क्योंकि जिसकी हम तलाश कर रहे हैं, वह हम से बाहर नहीं है।
व्यर्थ भए निष्फल गए जोग साधना यत्न। 
कौन समेटे धूरि जब मन में पिय सो रत्न।
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तुम्हारे भीतर ही प्यारा है, रत्नों का रत्न है, संपदाओं की संपदा है। जीसस ने कहा- साम्राज्य प्रभु का तुम्हारे भीतर है। लेकिन तुम भिखमंगे बने हो। तुम धूल बटोर रहे हो। तुम कूड़ा-करकट मांग रहे हो। तुम दूसरों के सामने हाथ फैलाए खड़े हो। जरा भीतर खोजो।
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और एक बार जिसने भीतर देखा, उसे पता चलता है कि मैं सम्राटों का सम्राट हूं। भगवत्ता मेरा स्वभाव है। भगवान मेरे भीतर विराजा है। फिर बांटने की यात्रा शुरू होती है। फिर बांटने का आनंद शुरू होता है।
ओशो

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