परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

सोमवार, 15 जुलाई 2024

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*दादू अंतर आत्मा, पीवै हरि जल नीर ।*
*सौंज सकल ले उद्धरै, निर्मल होइ शरीर ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जिन्होंने हरि को पा लिया, वे हरि से भी बड़े हैं। क्यों ? 
‘हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।’
खूब समझ लो इस बात को, कबीर कहते हैं। 
‘कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।’
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जगत हरि में है, अस्तित्व हरि के भीतर है। सारा जगत, अस्तित्व हरि के भीतर है। जगत हरि में है और हरि हरिजन में है। तो स्वभावतः कौन बड़ा ? यह जगत तो हरि के भीतर है; जैसे हरि के हृदय में यह जगत धड़क रहा है। उसके बिना यह नहीं हो सकेगा। यह जगत हरि के हृदय में बैठा है; औ हरि ? भगत के हृदय में बैठे है। तो भगत तो बड़ा हो गया; भगवान से बड़ा हो गया।
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तुम उसी दिन भगवत्ता को उपलब्ध हो जाते हो–भगवत्ता से भी ऊपर ऊठ जाते हो–जिस दिन तुम्हारे हृदय में राम बैठ जाते हैं। राम में सारा जगत समाया है–और राम के भगत में राम समाए हैं।
हरि सेति हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।
जैसे जगत हरि में समाया है, ऐसे हरि हरि के भगत में समाया हैं। वैष्णवजन !
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नरसी मेहता का वचन है–‘वैष्णवजन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे।’ उसको कहते हैं वैष्णव जन, जो दूसरे की पीड़ा जानने लगा। दूसरे की पीड़ा तुम तभी जानोगे, जब राम से मिलन हो जाएगा। तब तुम पाओगे कि सारा जगत राम को बिना पाए तड़प रहा है। तब तुम पाओगेः तुम्हारा तो उत्सव का क्षण आ गया, तुम्हारा तो महोत्सव आ गया, और सारा जगत पीड़ा में सड़ रहा है। और अकारण ! जब कि राम सभी को मिल सकते हैं। सब हकदार हैं। यह हमारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। लेकिन अपने हृदय में टटोलोगे, तो ही राम को पा सकोगे। वहां राम बसे हैं। और राम में सारा जगत है।
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ऐसे हरिजन की बड़ी महिमा कबीर ने गायी है–सभी संतों ने गायी है।
सार-सूत्र उससे सीखना, जो जानता हो; उससे नहीं, जो मानता हो। उसके पास बैठना, जो परमात्मा के पास बैठा हो; उसके पास नहीं, जिसके पास केवल शब्द हों। उसे खोजना, जिसके प्रेम में डूबे सको; जिसकी भाषा में नहीं–जिसके प्रेम में पग सको। किसी वैष्णवजन को खोजना। किसी हरिजन को खोजना। उसके ही साथ बैठते-बैठते हरि हरिभजन उठेगा।
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साध-संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ ॥
जाओ कहीं–जगन्नाथ, कि मथुरा, कि द्वारिका, कि काशी, कि कैलाश, कि काबा; जाओ जहां जाना है–कुछ भी हाथ नहीं आएगा।
साध-संगति हरिभजन बिन, कुछ न आवै हाथ।
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मेरो संगी दोेइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम॥
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि॥
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और अगर मिल जाए कोई साधु-जन, तो पागल होने में संकोच मत करना। मिल जाए कोई हरि का प्यारा, तो फिर सब दांव पर लगा देना। फिर जुआरी बन जाना। इसके जुआरीपन का नाम ही दीक्षा है। और जो दीक्षित हुआ, वही पहुंच सकता है।
आज इतना ही।
ओशो

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