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*कोटि वर्ष लौं राखिये, बंसा चन्दन पास ।*
*दादू गुण लिये रहै, कदे न लागै बास ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निगुणा का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
सुध बुध को काम सरै१ सत संगति,
खेचर२ रिंद३ कदे४ नहिं सीझे५ ।
नागर निम्ब को दूध सौं पोखिये६,
देख हु जाति स्वभाव न छीजे७ ॥
क्षार समुद्र न होय सुधा रस,
पाहन८ पानी हो९ मांहि न भीजे ।
कोयला कुटिल करै कुन१० उज्वल,
रज्जब रंग क्यों शंख हि दीजे ॥७॥
शुद्ध बुद्धि वाले का कार्य सत्संग में सिद्ध१ हो जाता है किंतु स्वच्छंद३ प्रेतरूपी२ दंभी का कार्य कभी४ नहीं सिद्ध५ होता ।
देखो, नागर बेलि और नीम को दूध सींच कर पाला६ जाय तो भी उनका जाति स्वभाव क्षीण७ नहीं होता । न तो नागर बेलि फल देती है और न नीम मीठा होता है ।
क्षार समुद्र अमृत रस नहीं हो सकता और हे९ सज्जनों ! न पत्थर८ ही पानी में भीगता है ।
कोयला को कौन१० उज्वल कर सकता है ? शंख में रंग कैसे दिया जाय ? वैसे ही कुटिल प्राणी न तो पवित्र होता है और न उसमें भक्ति का रंग ही लगता है ।
(क्रमशः)
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