परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

= १३४ =

卐 सत्यराम सा 卐
प्रेम लग्यो परमेश्वर सों तब, 
भूलि गयो सिगरो घरु बारा ।
ज्यों उन्मत्त फिरें जितहीं तित, 
नेक रही न शरीर सँभारा ॥
श्वास उसास उठे सब रोम, 
चलै दृग नीर अखंडित धारा ।
सुंदर कौन करे नवधा विधि, 
छाकि पर्यो रस पी मतवारा ॥
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साभार ~ Vijay Divya Jyoti
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*ज्ञान एक नाव है संबोधि नहीं॥*
*WISDOM IS A BOAT NOT ENLIGHTENMENT*
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मित्रों आज आपके लिए एक कहानी लाया हूँ जो भगवान बुद्ध को बड़ी प्रिय थी। बुद्ध के जीवन में ये उल्लेख है कि उन्होने ये कहानी अनेकों बार लोगों को सुनाई। 
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कहानी ये कहती है कि पाँच बड़े ज्ञानी पंडित लोग थे जो किसी मुसीबत में थे और उन्हें नदी पार कर कहीं जाना था और उस समय नदी में बाढ़ आई थी। उन्होने ने एक नाव पर बैठकर वो नदी पार की लेकिन निर्णय लिया कि चूंकि इस नाव ने इस विषम परिस्थिति में हमारा साथ दिया है, मदद की है, अतः हमें इस नाव को सिर पर उठाकर ले जाना चाहिए। इस नाव के अहसान को कैसे भुलाएं? वो पांचों उस नाव को सिर पर रखकर ढोने लगे और जब एक गाँव में पहुंचे तो पूरा गाँव एकट्ठा हो गया। 
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गाँव वालों ने पूछा “ये तुम क्या कर रहे हो?” ये तो बड़ा ऊटपटाँग कृत्य है। उन पांचों ने उत्तर दिया हम इस नाव को नहीं छोड़ सकते क्योंकि इस नाव ने हमें मुसीबत में नदी पार करवाई है। वर्षा के दिन हैं और नदी में बाढ़ आई है। इस नाव के बगैर नदी पार करना असंभव था, अतः ये नाव हमारी मित्र है और हम इस तरह से इस नाव के प्रति कृतज्ञता जतला रहे हैं। 
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सारा गाँव हंसने लगा। उन्होने कहा “ये सच है कि ये नाव मित्र थी लेकिन अब ये नाव शत्रु है। अब तुम नाव के कारण ही दुख पा रहे हो और पाओगे यदि ऐसे ही ढोते रहे। अब तुम्हारे लिए ये एक बंधन हो जाएगी। अब तुम कहीं न जा सकोगे और ना ही कुछ कर पाओगे। 
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दोस्तों आप सबको दिल से नमन है क्योंकि आप सब बुद्ध की इस कहानी का मर्म समझ गए हैं लेकिन फिर भी आप सब के साथ ये भाव साझा कर रहा हूँ कि ज्ञान भी एक नाव है : अज्ञान के पार जाने के लिए लेकिन इस ज्ञान को सिर पर ढो कर घूमने की जरूरत नहीं जैसे इन ज्ञानियों ने किया। 
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तर्कसंगत लगता है कि ज्ञान{अर्थात नाव} को छोड़ा नहीं जा सकता क्योंकि ये अज्ञान की नदी के पार लाया है और यदि हम ज्ञान को छोड़ देंगे तो फिर उसी अज्ञान अर्थात इस पार की स्थिति में आ जाएंगे। नहीं ऐसा नहीं है जब आदमी की चेतना की अवस्था बदल जाती है तो फिर उसी अवस्था में वो आ ही नहीं सकता क्योंकि जिसने जान लिया वो फिर अज्ञानी नहीं हो सकता। 
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जिस तरह आदमी अपने अज्ञान को छोडने से डरता है, उसी तरह जब उसे ज्ञान होता है तो फिर वह अपने ज्ञान को नहीं छोड़ पाता, ज्ञान को भी छोडने से डरता है जबकि ज्ञान केवल एक नाव है जो अज्ञान से पार लाती है। इस ज्ञान को भी छोडना ही होता है। लेकिन यदि कोई इस ज्ञान से ही चिपका रह जाएगा तो वह फिर कभी उस ज्ञान के पार नहीं जा पाएगा क्योंकि ज्ञान ही सब कुछ नहीं केवल नाव की तरह साधन मात्र है। ज्ञान मंजिल नहीं है। जब कोई अज्ञान को फेंक देता है तो वो ज्ञान में उठता है और जब कोई ज्ञान को भी फेंक देता है तो वो संबोधि में उठता है।

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