॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)**
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विन्दु ९३ =**
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केशवदास आकोदावाले दादूजी को प्रणाम करके बोले - स्वामिन् ! प्राणियों के मानव तन के व्यर्थ क्षीण होने में मूल कारण क्या है ? कृपा करके बताइये ? दादूजी महाराज ने केशवदास आकोदावालों का उक्त प्रश्न सुनकर कहा -
**= केशवदास के प्रश्न का उत्तर =**
"मेरी मेरी करत जग क्षीना, देखत ही चल जावे ।
काम क्रोध तृष्णा तन जले, तातैं पार न पावे ॥ टेक ॥
मूरख ममता जन्म गमावे, भूल रहे इहिं बाजी ।
बाजीगर को जानत नांहीं, जन्म गमावे बादी ॥ १ ॥
प्रपंच पंच करे बहुतेरा, काल कुटुम्ब के तांई ।
विष के स्वाद सबहि ये लागे, तातैं चीन्हत नांहीं ॥ २ ॥
येता जिव में जानत नांहीं, आय कहां चल जावे ।
आगे पीछे समझे नांहीं, मूरख यूं डहकावे ॥ ३ ॥
ये सब भरम भान भल पावे, शोध लेहु सो सांई ।
सोई एक तुम्हारा साजन, दादू दूसर नांहीं ॥ ४ ॥
जगत के प्राणी "यह नारी मेरी है, यह संपत्ति मेरी है" ऐसे करते करते ही क्षीण हो जाते हैं और नारी तथा संपत्ति भी देखते देखते ही उनके हाथ से चली जाती हैं । काम, क्रोध तृष्णादि हृदय को जलाते रहते हैं, इसलिये संसार से पार जा नहीं सकते । मूर्ख ममता द्वारा इस संसार रूप बाजी में ही मोहित रहते हैं और परमेश्वर रूप बाजीगर को न जान कर अपना जन्म व्यर्थ ही खो देते हैं । पंच ज्ञानेन्द्रियों के तथा कालरूप कुटुम्ब के पोषणार्थ बहुत प्रपंच करते हैं । और ये सब प्राणी विषय - विष के स्वाद में ही लगे रहते हैं । इसी लिये अपने वास्तविक हित को नहीं पहचानते । इतना भी नहीं जानते "कहां से आया हूँ और कहाँ जा रहा हूं ।" पहले भोगकर आये उनको तथा अपने दुष्कर्म से होने वाले भविष्य के क्लेशों को नहीं समझते, इसी लिये उक्त प्रकार विषयों में बहक जाते हैं । इन सांसारिक संपूर्ण भ्रमों को अच्छी प्रकार नष्ट करके प्रभु की खोज करता है, वही प्रभु को प्राप्त करता है । वह एक परमात्मा ही तुम्हारा सच्चा मित्र है, अन्य कोई भी मित्र नहीं है । उक्त पद सुनकर केशवदास अति प्रसन्न होकर दादूजी महाराज को प्रणाम करके बोले - स्वामिन् ! आपका कथन यथार्थ है ।
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दादूजी महाराज को प्रणाम करके गैंदीदास आदरवा वाले बोले - स्वामिन् ! तत्त्व साक्षात्कार करने वाले महानुभाव प्रभु को किस प्रकार देखते हैं ? कृपा करके उनकी स्थिति का परिचय दीजिये । तब दादूजी ने कहा -
**= गैंदीदास के प्रश्न का उत्तर =**
"पीव पीव आदि अंत पीव,
परस परस अंग संग, पीव तहां जीव ॥ टेक ॥
मन पवन भवन गवन, प्राण कमल मांहिं ।
निधि निवास विधि विलास, रात दिवस नांहिं ॥ १ ॥
श्वास बास आस पास, आत्म अंग लगाइ ।
ऐन बैन निरख नैन, गाइ गाइ रिझाइ ॥ २ ॥
आदि तेज अंत तेज, सहजैं सहज आइ ।
आदि नूर अंत नूर, दादू बलि बलि जाइ ॥ ३ ॥
सृष्टि के आदि में प्रभु हैं, अन्त में प्रभु हैं । और मध्य में भी प्रभु रहते हैं । वृत्ति द्वारा बारंबार उनके स्वरूप से स्पर्श करके जीव उनके संग ही हो जाता है और जिस निर्द्वन्द्वावस्था में प्रभु रहते हैं, उसी में जीव रहता है । प्राणी मन और प्राणों को रोक कर देह - भवन के अष्ट दल कमल में जहां परमात्मा रूप निधि का निवास है, तहाँ गमन करता है । वहां सभी विधियें आनन्द प्राप्त होने की होती हैं । ज्ञान - अज्ञान रूप रात्रि - दिन का भेद नहीं भासता है । अपने अति समीप आत्म स्वरूप ब्रह्म में ही वृत्ति लगाकर प्रति श्वास वहां ही बसता है । सद्गुरु वचनों के द्वारा ज्ञान नेत्रों से प्रत्यक्ष देखकर ध्यानावस्था में बारंबार गुण गान करते हुये प्रभु को प्रसन्न करता है । अब आदि अन्त में ब्रह्म तेज ही भास रहा है । इस प्रकार ब्रह्म तेज को देखते देखते अनायास ही सहजावस्था में आकर अपने आदि अन्त में भासने वाले प्रभु को मध्य में ही प्राप्त करके हम उसी की बलिहारी जाते हैं ।
उक्त प्रभु परिचय सबन्धी दादूजी महाराज का पद सुनकर गैंदीदास आदि सभी सज्जन प्रसन्न हुये ।
(क्रमशः)

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