परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शनिवार, 25 मार्च 2017

= १५० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू राम रसाइन नित चवै, हरि है हीरा साथ ।
सो धन मेरे साइयां, अलख खजाना हाथ ॥ 
हिरदै राम रहै जा जन के, ताको ऊरा कौण कहै ।
अठ सिधि, नौ निधि ताके आगे, सनमुख सदा रहै ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

(((((((((( असली पारस ))))))))))
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संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था और परीसा भागवत की पत्नी का नाम था कमला। कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियाँ थीं। 
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दोनों की शादी हुई तो पड़ोस-पड़ोस में ही आ गयीं। राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी थी। 
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कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस माँग लिया और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे।
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नामदेव जी दर्जी का काम करते थे। वे कीर्तन-भजन करने जाते और पाँच- पन्द्रह दिन के बाद लौटते। अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इकट्ठे करते और फिर चले जाते।
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वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।
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एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गये तो कमला ने राजाई से कहा कि ‘तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया, तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।‘
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राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की माँग भी आवश्यकता की पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।
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नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में बहुत सारा सामान, धन-धान्य…. भरा-भरा घर दीखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।
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नामदेव जी ने कहाः “इतना सारा वैभव कहाँ से आया ?” 

राजाई ने सारी बात बता दी कि “परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया। वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं। हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दुःख देखकर उसको दया आ गयी।”
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नामदेव जी ने कहाः “मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों को पारस ईश्वर है, उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान !”
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नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बाँटकर आ गये। घर जैसे पहले था ऐसे ही खाली-खट कर दिया।
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नामदेव जी ने पूछाः “वह पत्थर कहाँ है ? लाओ !” राजाई पारस ले आयी। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे “मेरे विट्ठल, पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा, नहीं तो हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जायेंगे।” – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गये।
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स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती। राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया। अब सहेली कमला तो रोने लगी। 
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इतने में परीसा भागवत आया, पूछाः “कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ?”
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वह बोलीः “तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।“ आखिर परीसा भागवत ने सारा रहस्य समझा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया।
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बोलाः “कहाँ है नामदेव, कहाँ है ? कहाँ गया मेरा पारस, कहाँ गया ?” और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।
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परीसा भागवत वहाँ पहुँचाः “ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिये।”
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नामदेवः “पारस तो मैंने डाल दिया उधर(नदी में)। परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ? मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है। पारस-पारस क्या करते हो भाई ! बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।”
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“मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।”
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“हरि हरि बोलो, और आत्मविश्रांति पाओ !!
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“नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ। मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है… मुझे मेरा पारस दीजिये।”
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“पारस तो नदी में डाल दिया।”
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“नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिये।”
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“अब क्या करना है….. सच्चा पारस तो तुम्हारी आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है….”
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“मैं आपको हाथ जोड़ता हूँ मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो…. पारस दो…..।”
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“पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।”
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“कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किये, सिद्धि आयी, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है। देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस….”
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नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।
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नामदेव जी बोलेः “अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है !”
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‘जय पांडुरंगा !’ कहकर नामदेव जी ने नदीं में डुबकी लगायी और कई पत्थर ला के रख दिये उसके सामने।
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“आपका पारस आप ही देख लो।” 
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देखा तो सभी पारस ! “इतने पारस कैसे !”
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“अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !” 
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“ये कैसे पारस, इतने सारे !”

नामदेव जी बोलेः “अरे, आप अपना पारस पहचान लो।” 
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अब सब पारस एक जैसे, जैसे रूपये-रूपये के सिक्के सब एक जैसे। आपने मुझे एक सिक्का दिया, मैंने फेंक दिया और मैं वैसे सौ सिक्के ला के रख दूँ और बोलूँ कि आप अपना सिक्का खोज लो तो क्या आप खोज पाओगे ?
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उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया। लोहे की जिस वस्तु को लगाये वह सोना !
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“ओ मेरी पांडुरंग माऊली (माँ) ! क्या आपकी लीला है ! हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे ! हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस, नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !”
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परीसा भागवत ने सारे-के-सारे पारस नदी में फेंक दिये और परमात्म- पारस में ध्यान मग्न हो गये।
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ईश्वर जिस ध्यान में हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस ध्यान में हैं, तुम वहाँ पहुँच सकते हो। अपनी महिमा में लग जाओ। आपका समय कितना कीमती है और आप कौन से कूड़-कपट जैसी क्रिया-कलापों में उलझ रहे हो !
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अभी आप बन्धन में हो, मौत कभी भी आकर आपको ले जा सकती है और भी किसी के गर्भ में ढकेल सकती है। गर्भ न मिले तो नाली में बहने को आप मजबूर होंगे। 
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चाहे आपके पास कितने भी प्रमाण पत्र हों, कुछ भी हो, आपके आत्मवैभव के आगे यह दुनिया कोई कीमत नहीं रखती।

“जब मिला आत्म हीरा, जग हो गया सवा कसीरा।”
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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