परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

बुधवार, 22 मार्च 2017

= १४४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

जब बच्चा पैदा होता है तो उसे जो पहला अनुभव होता है वह मैं का नहीं है, पहला अनुभव तू का है, उसकी नजर पहले तो मां पर पडती है, अपने को तो बच्चा देख ही नहीं सकता, वह तो दर्पण देखेगा तब पता चलेगा, बच्चे को अपना चेहरा तो पता नहीं चलता, बच्चे को अनुभव पहले मां का होता है, तू का होता है, डाक्टर को देखता होगा, नर्स को देखता होगा, मां को देखता होगा, दीवाल, मकान को देखता होगा, रंग - बिरंगे लटके खिलौनों को देखता होगा, लेकिन तू, मैं का तो अभी पता नहीं चलता।
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तुमने छोटे बच्चे को देखा कभी? बड़े दर्पण के सामने रख दो तो वे उसको भी ऐसे देखते हैं जैसे कोई दूसरा बच्चा टटोलते हैं, थोड़े चिंतित भी होते हैं, थोड़े डरते भी हैं, क्योंकि अभी यह भरोसा तो हो ही नहीं सकता कि मैं हूं, क्योंकि मैं का तो कोई पता ही नहीं है, आईने के पीछे जाकर देखते हैं सरक कर कि कोई बैठा? किसी को न पाकर बड़े किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं...
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छोटे बच्चे अपना ही अंगूठा पीते हैं, तुमने देखा? पैर का ही अंगूठा पकड़कर चूसने लगते हैं, हाथ का अंगूठा चूसने लगते हैं, तुम्हें पता है कारण? कारण यह है कि उनको ये भी चीजें मालूम पड़ती हैं, कि यह कोई चीज पड़ी है, उठा लो, जैसे वे और चीजें उठाकर मुंह में डाल लेते हैं वैसा अपना अंगूठा उठाकर मुंह में डाल लिया, अभी अपना तो पता नहीं है, यह अंगूठा अपना है इसका बोध तो थोड़ी देर से होगा, यह तो एक चीज है जो यहां दिखाई पड़ती है आसपास हमेशा, इसको उठा ली, मुंह में डाल ली...
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बच्चा हर चीज मुंह में डालता है, क्योंकि उसके पास अभी एक ही अनुभव का स्रोत है, मुंह, तुमने खिलौना दिया, वह जल्दी से मुंह में डालता है, क्योंकि उसकी अभी एक ही इंद्रिय सक्रिय हुई है - स्वाद, वह चखकर देखता है कि है क्या! क्योंकि बच्चे की पहली इंद्रिय मुंह है, जो सक्रिय होती है, उसे दूध पीना पड़ता है। वह उसका पहला अनुभव है। उसी अनुभव से वह सारी चीजों की तलाश करता है, वह अपने ही हाथ का अंगूठा अपने मुंह में डालकर चूसने लगता है, इस खयाल में कि कोई चीज है जिसको वह चूस रहा है, यह तो धीरे - धीरे उसे समझ में आना शुरू होता है कि यह अपना हाथ है, अपना हाथ तो तब पता चलता है जब अपना पता चलता है, यह तो नंबर दो है अपना हाथ...
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और अपना पता चलता है तब, जब तू का धीरे - धीरे साफ पता होने लगता है कि कौन - कौन तू है, इन तू के मुकाबले वह सोचने लगता है, मैं कुछ भिन्न हूं क्योंकि मां कभी होती है, कभी चली जाती है, वह मां को जाते देखता, आते देखता फिर धीरे - धीरे अहसास होता है कि मैं तो यहीं रहता हूं। जब मां नहीं होती तब भी रहता हूं,इतना कुछ ऐसे विचारों में और शब्दों में सोचता है ऐसा नहीं, ऐसा धीरे - धीरे अनुभव परिपक्व होता है...
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अब तुम ध्यान रखना, जैसे पहले तू आता है और मैं पीछे आता है ऐसे ही आध्यात्मिक प्रक्रिया में पुन: जब फिर से नया जन्म होगा तो तू पहले जायेगा, फिर मैं जायेगा जब तू चला गया तो मैं ज्यादा देर नहीं टिक सकता, यह मैं तो तू की छाया की तरह ही आया था और यह तू की छाया की तरह चला जायेगा, इसलिए अगर कोई ज्ञानी कहता हो *“मैं”*, तो समझना अभी तू गया नहीं है, अभी तू कहीं आसपास ही खड़ा होगा, उसकी छाया पड़ रही है। मैं तू की छाया है, और तू ज्यादा मौलिक है मैं से, क्योंकि मैं पीछे आता, तू पहले आता, तू के चले जाने पर मैं चला जाता है...
ओशो
अष्‍टावक्र: महागीता (भाग-6) प्रवचन–79

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