परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

सोमवार, 27 मार्च 2017

= १५४ =

卐 सत्यराम सा 卐
*ऐसा अचरज देखिया, बिन बादल बरषै मेह ।*
*तहँ चित चातक ह्वै रह्या, दादू अधिक स्नेह ॥* 
*महारस मीठा पीजिये, अविगत अलख अनन्त ।*
*दादू निर्मल देखिये, सहजैं सदा झरंत ॥* 
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साभार ~ Sadanand Soham
*: : मनन के मोती : :*
प्रिय आत्मन ~ प्रेम ..
(S000000000000000000000000000000000000HAM)
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एक भवन का निर्माण हो रहा था ! बङा सुंदर भवन बन गया ! सजावट, फर्नीचर, रंग रोगन .. सब कुछ अच्छा हो गया ! उस अच्छे से घर में वो घर का मालिक रहने लग गया ! पर एक समस्या उसे हो गयी ! उस घर में .. पानी .. जो बाहर से आता था ~ कभी कम आता, कभी गंदा, अशुद्ध आता .. तो वो टैंकर से या बाल्टी से मँगवा लेता ! पैसे भी लगते, श्रम भी होता, परेशानी भी होती .. मगर क्या करे .. क्यों कि रहना है तो जल नितांत आवश्यक है ! वो हरदम इस समस्या से परेशान रहता था !
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किसी मित्र ने उसे सलाह दी कि तुम्हारे घर के नीचे बहुत ही मीठे जल की धारा बह रही है .. तुम एक कुँआ क्यों नहीं बनवा लेते ! आदमी थोड़ा समझदार था .. उसने ये सलाह मान ली और कुँआ खुदवा लिया ! उसकी समस्या न केवल उसके लिये दूर हो गयी, अब तो वो औरों को भी जल बाँटने में सक्षम हो गया ! 
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पर क्या सब लोग इतने समझदार और सलाह मानने वाले होते हैं ? मनुष्य का जीवन उसका भवन है ! ये शरीर उसका घर होता है जिसमें वो रहता है ! और इस घर में .. सुख रूपी जल .. वो हमेशा केवल बाहर से ही लाने का प्रयास करता रहता है ! निरंतर उसका ये प्रयास रहता है कि कैसे सुख मिले ! बहुत सारा धन, तरह तरह के साधन, तरह तरह के भोजन, मनोरंजन ~ सब कुछ जुटाने का अथक प्रयास करता है ! 
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लेकिन .. पहली बात तो सुख आसानी से मिलते नहीं .. और मिल भी जाये .. तो ये सारे सुख मिलते ही पुराने हो जाते हैं ! और मन का स्वभाव ऐसा है कि उसे नित नये सुख की तलाश रहती है ! 
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दूसरे, जैसे बाहर के पानी के साथ अनेक अशुद्धियाँ भी आ जाती हैं ~ बाह्य साधनों और सुखों के साथ और इनको प्राप्त करने की प्रक्रिया में तरह तरह की चिंतायें और तनाव भी आ जाते हैं ! धनी व्यक्ति को और ज्यादा चिंतायें हो जाती हैं कि .. और अधिक कैसे आये और जो आ गया है वो मेरे ही पास हरदम कैसे बना रहे .. कोई और इसे मुझसे ना ले ले !
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दुनिया के सारे धर्म और इतने संत, ज्ञानी हुए .. सब पुकार पुकार कर कहते हैं कि परमात्मा तुम्हारे अंदर है, राम तुम्हारे घट में बसे हैं, आनंद की रसधार का स्रोत तुम्हारे भीतर है, जरा स्वयं के भीतर खुदाई करके कुँआ बना लो ! मगर मनुष्य जाति इतनी अधिक समझदार हो गयी है कि ये बातें सुनाई नहीं पङती, पुरानी लगती हैं, समझ में ही नहीं आती ! मनुष्यता धर्म केंद्रित न होकर केवल धन केंद्रित हो गयी है ~ ऐसा प्रतीत होता है ! 
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सुख रूपी जल तो आवश्यक है .. मगर केवल बाहर के ही जल पर निर्भर ना रहकर अगर अपना कुँआ भी बना लिया जाये .. तो जीवन के घर में आनंद की वृद्धि हो जाये ! और आनंद की रसधार निश्चित रूप से भीतर है ! क्यों कि जिन्होंने भी भीतर प्रवेश किया है .. उन्होंने उसे पाया है ! जिन्होंने उसे पाया है .. उन्होंने ही तो कहा है ~ 
*बिन घन परत फुहार* 
यानी बिना बादल फुहार बरस रही है ! अकारण, आनंद की फुहार हो रही है और वो मस्ती में झूम रहे हैं ! परमात्मा के रस की बरसात भीतर हो रही है और वो आनंद को, खुमारी को अनुभव कर रहे हैं...
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*पीवत राम रस लगी खुमारी*
कितने आश्चर्य की बात है .. कि मनुष्य स्वयं के भीतर जो आनंद, जो सुख उपस्थित और जहाँ कोई प्रतिस्पर्धा भी नहीं है .. उसको भूला रहता है, उसको जानने का प्रयास भी नहीं करता, और सदा बाहर से ही सुखों को पाने के प्रयास में लगा रहता है ! और उसके फलस्वरूप होनेवाली अशांति, बेचैनी, तनाव की पीङा के दंश को सहन करता रहता है !
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एक बार आंतरिक आनंद के स्रोत का द्वार खुल जाये .. तो बाहर के सुखों की अनुभूति भी अद्भुत हो जाती है, स्वतः कई गुना बढ जाती है ! और इस आंतरिक स्रोत के द्वार को खोलने का मार्ग है ~ मौन, ध्यान, मेडीटेशन, स्वयं में प्रवेश .. !!
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मित्रों ~ जिस भवन में हम रहते हैं .. उसमें कचरे को, अप्रिय वस्तुओं को हम सहन नहीं करते हैं ! उसे स्वच्छ और सुंदर वस्तुओं से सजा कर रखते हैं ! हम जिस मकान में, भवन में रहते हैं, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जीवन का भवन ! और इस जीवन के भवन में अशांति, तनाव, बेचैनी, क्रोध जैसी अप्रिय वस्तुओं की जगह .. प्रेम, शांति, मैत्री, और आनंद की रसधार का आयोजन करना, ये प्रत्येक मनुष्य के स्वयं के चुनाव पर निर्भर करता है ! 
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*आपका आंतरिक केंद्र .. आंतरिक स्रोत सदा से आपकी प्रतीक्षा कर रहा है !* 
*आपका अंतस का केंद्र सिर्फ आपका है... और तथ्य तो ये है, कि केवल वो ही आपका है !*
बाकी सब बाहर की वस्तुएं, रिश्ते .. सब ..... ... ??
आपका ~ आपके आंतरिक केंद्र से परिचय हो .. उसमें प्रवेश हो... 
इसी मंगल भावना के साथ ~ 
आपके दिव्य आंतरिक केंद्र को मेरे प्रणाम .. !!

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