परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

मंगलवार, 7 मार्च 2017

= निष्कामी पतिव्रता का अंग =(८/५२-४)



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卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
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*= निष्कामी पतिव्रता का अँग ८ =* 
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*अन्य लग्न व्यभिचार* 
दादू नारी पुरुष को, जानैं जे वश होइ । 
पिव की सेवा ना करे, कामणकारी सोइ ॥५२॥ 
५२ में कहते हैं - प्रभु सेवा से अन्य, प्रभु को वश करने के काम में लग्न रखना, व्यभिचार है - जैसे कोई नारी मन में यह सोचती है - मेरा पति मेरे अधीन हो जाये, उसके लिये पतिव्रत - युक्त पति - सेवा तो करती नहीं, जादू - टोना आदि करके वश करना चाहती है तो समझना चाहिए, यह कामणकारी होने से पतिव्रता नहीं है । वैसे ही जो साधक निष्काम - पतिव्रत रूप भगवत् - सेवा न करके ईश्वर के असीम ऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहता है और नाना अनुष्ठानादि करता है, उसको भी उक्त नारी के समान ही समझो ।
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*करुणा*
कीया मन का भावता, मेटी आज्ञाकार । 
क्या ले मुख दिखलाइये, दादू उस भरतार ॥५३॥ 
५३ में भक्ति न करने से होने वाले पश्चात्ताप को दिखा रहे हैं - "निष्काम पतिव्रत रूप अनन्यता से मेरी शरण हो ।" यह भगवान् की आज्ञा तो मानी नहीं और आजन्म मन को प्रिय लगने वाले कार्य किये । अब उन भगवान् रूप भरतार को क्या भेंट लेकर मुख दिखलावें । उनको तो भक्ति ही प्रिय है, सो हमने की नहीं । अत: उनके आगे लज्जित ही होना पड़ेगा । 
*अन्य लग्न व्यभिचार* 
करामात कलँक है, जाके हिरदै एक । 
अति आनँद व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक ॥५४॥ 
५४ - ५६ में पतिव्रता और व्यभिचारिणी के रूपक से निष्कामी और सकामी विषयक परिचय दे रहे हैं - जिस निष्काम पतिव्रत युक्त साधक - सुन्दरी के हृदय में एक परमात्मा पति ही बसता है, उसके लिए अनेक भोग - सामग्री और नाना चमत्कारादिक कलँक रूप हैं किन्तु जो विषयी रूप व्यभिचारिणी है, और जिसके देव - यक्षादि अनेक स्वामी हैं, उसे तो उन भोगादि सामग्रियों और चमत्कारादि में ही अति आनन्द प्राप्त होता है । 
(क्रमशः)

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