#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अँग १०*
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इन्द्री स्वारथ सब किया, मन मांगे सो दीन्ह ।
जा कारण जग सिरजिया, सो दादू कछू न कीन्ह ॥३१॥
हमने इन्द्रियों को तृप्त करने रूप स्वार्थ के लिए तो सभी अर्थ, अनर्थ रूप कार्य किये और मन ने जो भी मांगा, वही उसे दिया । धर्माधर्म का कुछ भी विचार नहीं रखा, किन्तु जिस कार्य के लिए ईश्वर ने जगत् में हमें मनुष्य रूप से रचा, वह मनोनिग्रह पूर्वक भगवद् - भक्ति कुछ भी नहीं की । अत: हम पश्चात्ताप के योग्य ही हैं ।
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कीया था इस काम को, सेवा कारण साज ।
दादू भूला बँदगी, सरा न एकौ काज ॥३२॥
यह मनुष्य शरीर रूप साज ईश्वर ने इस काम के लिए रचा था - इसमें मनोनिग्रह पूर्वक मेरी भक्ति करेगा किन्तु ईश्वर भक्ति को तो भूल गया और साँसारिक विषय सुख की ओर जा रहा है । परन्तु याद रख ऐसा करने वालों का परमार्थ और व्यवहार रूप दोनों कार्यों में से एक भी पूर्ण नहीं हुआ है, तब तेरा कैसे होगा ? यही साखी दूल्हा बने रज्जबजी को कही थी, जिससे वे तत्काल विरक्त हो गये था । प्रसंग कथा - दृ - सु - सि - त - ३ । ५४ में देखो ।
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*मन प्रबोध*
बाद हि जन्म गंवाइया, कीया बहुत विकार ।
यहु मन सुस्थिर ना भया, जहं दादू निज सार ॥३३॥
३३ में मन की कृतति पर पश्चात्ताप करते हुये मन को शिक्षा दे रहे हैं - यह मन विकार बढ़ाने वाले कार्य अधिकतर करता रहा है और जिस हृदय स्थान में अपने स्थूल सूक्ष्म सँघात का सार आत्मा है, उसमें अब तक सम्यक् स्थिर नहीं हुआ । अत: हे मन ! तूने यह मानव - जन्म विषय - विकारों में व्यर्थ ही खो दिया ।
(क्रमशः)
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