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卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अँग १०*
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काचा पाका जब लगैं, तब लग अंतर होइ ।
काचा पाका दूर कर, दादू एकै होइ ॥४३॥
जब तक मन में कभी तो विषय प्राप्ति हित कायरता रूप कच्चापन आ
जाता है और कभी विषयों में दोष दृष्टि से वैराग्य रूप पक्कापन आ जाता है तब तक जीव
ब्रह्म का भेद ही रहता है । उक्त प्रकार का कच्चा - पक्का पन दूर करके जिसका मन
वास्तविक विवेक - वैराग्य पूर्वक निरँतर ब्रह्म - परायण रहता है । वह अपने आत्मा
को ब्रह्मरूप जान कर ब्रह्म से अभेद हो जाता है ।
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*मध्य निर्पक्ष *
सहज रूप मन का भया, तब द्वै द्वै मिटी तरँग ।
ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अँग ॥४४॥
४४ में कहते हैं - निर्द्वन्द्व निर्पक्ष रूप मध्य स्थिति में
मन आता है, तभी ब्रह्म से अभेद होता है । जब मन राग - द्वेषादि से रहित सहज
स्वभाव से रहता है तब उसकी काम - क्रोधादि तरँगेँ शान्त हो जाती हैं और जब सुख, दु:ख रूप
शीतोष्ण की प्राप्ति में सुखी - दुखी न होने रूप समता आ जाती है, तब उसी
समय साधक एक अद्वैत स्वरूप अपने प्रियतम ब्रह्म से अभेद हो जाता है ।
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*मन *
दादू बहु रूपी मन तब लगैं, जब लग माया रँग ।
जब मन लागा राम सौं,
तब दादू एकै अँग ॥४५॥
४५ - ४८ में मन की उभयावस्था का परिचय दे रहे हैं - जब तक मन पर
माया का प्रभाव रूप रँग है तब तक ही मन बहुत रूप धारण करता है=जो भी गुण वो वस्तु
मन के सामने आती है, मन उसके समान ही हो जाता है, और जब मन निरंजन राम
के स्वरूप विचार में लग जाता है, तब एक मात्र रामाकार होकर ही रहता है, अन्य रूप
नहीं धारण करता ।
(क्रमशः)
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