卐 सत्यराम सा 卐
काहे रे बक मूल गँवावै,
राम के नाम भलें सचु पावै ॥ टेक ॥
वाद विवाद न कीजे लोई,
वाद विवाद न हरि रस होई ।
मैं मैं तेरी मांनै नाँहीं हीं,
मैं तैं मेट मिलै हरि मांहीं ॥ १ ॥
हार जीत सौं हरि रस जाई,
समझि देख मेरे मन भाई!
मूल न छाड़ी दादू बौरे,
जनि भूलै तूँ बकबे औरे ॥ २ ॥
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साभार ~ Gems of Osho
*दलील से कुछ हल नहीं होता*
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मैंने सुना है, दो सन्यासी थे और उन दोनों में एक विवाद था, बड़ा लंबा विवाद था। उनमें एक सन्यासी था, जो इस बात को मानता था कि कुछ पैसे वक्त बेवक्त के लिए अपने पास रखना जरूरी है, उचित है। वह निरंतर, दूसरे मित्र से उसका निरंतर विवाद होता था। दूसरा मित्र कहता था, पैसे की क्या जरूरत है? पैसे रखने की क्या जरूरत है? हम संन्यासी हैं, हमें पैसे की क्या जरूरत है? पैसे तो वे रखते हैं, जो संसारी हैं। वे दोनों दलीलें देते थे और वे दोनों ठीक ही दलीलें देते थे, ऐसा मालूम पड़ता था।
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इस जगत का बड़ा रहस्य यह है कि इस जगत के बड़े रहस्य में जो विरोध की ईंटें रखी गई हैं, उनमें से किसी भी एक ईंट के संबंध में पूरी दलीलें दी जा सकती हैं। और दूसरी ईंट के संबंध में भी उतनी ही दलीलें दी जा सकती हैं। और यह विवाद कभी अंत नहीं हो सकता, क्योंकि वे दोनों ईंटें लगी हुई हैं। कोई भी इशारा करके बता सकता है कि देखो, मेरी ईंटों से बना हुआ है यह। और दूसरा भी बता सकता है कि मेरी ईंटों से बना हुआ है। और जिंदगी इतनी बड़ी है कि बहुत कम लोग इतना विकास कर पाते हैं कि पूरे द्वार को देख पाएं। वह जो ईंटें उनको दिखाई पड़ती हैं, उतनी ही देख पाते हैं।
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वे कहते हैं, ठीक ही तो कहते हो, संन्यास से ही तो बना हुआ है; ठीक ही तो कहते हो, ब्रह्म से बना हुआ है, ठीक ही तो कहते हो, आत्मा से बना है। वह दूसरा कहता है, पदार्थ से बना है, मिट्टी से बना है। डस्ट अनटू डस्ट, सब मिट्टी का मिट्टी में गिर जाएगा उसी से बना हुआ है, और कुछ भी नहीं है। वह भी ईंटें बता सकता है। इसलिए न आस्तिक जीतता है, न नास्तिक जीतता है। न पदार्थवादी जीतता है, न अध्यात्मवादी जीतता है। जीत भी नहीं सकते हैं, क्योंकि वे जिंदगी को आधा आधा तोड़कर कह रहे हैं।
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तो उन दोनों में बड़ा विवाद था। वह जो कहता था कि पैसे पास होना जरूरी है, एक जो कहता था कि पैसे की क्या जरूरत है। वे दोनों एक दिन सांझ एक नदी के किनारे भागे हुए पहुंचे हैं। रात उतरने के करीब है। माझी नाव बांध रहा है। नाव बांधते उस मांझी से उन्होंने कहा, नाव मत बांधो, हमें उस पार पहुंचा दो, रात उतरने को है, हमें उस पार जाना जरूरी है। उस मांझी ने कहा, अब तो मैं दिन भर का काम निपटा चुका और अपने गांव वापस लौट रहा हूं। अब सुबह उतार दूंगा। उन्होंने कहा, नहीं, सुबह तक हम प्रतीक्षा नहीं कर सकते। हमारा गुरु उनका गुरु, उनका सन्यासी जिसके पास उन्होंने जीया, जाना, पहचाना जीवन को वह मृत्यु के निकट है और खबर आई है कि सुबह तक उसके प्राण निकल जाएंगे। उसने हमें बुलावा भेजा है। हम रात नहीं रुक सकते।
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माझी ने कहा कि मैं पांच रुपए लूंगा, तो उतार दूंगा। तो जो सन्यासी कहता था कि रुपए पास रखना चाहिए, वह हंसा और उसने कहा, कहो दोस्त, अब क्या खयाल है? उस सन्यासी से कहा जो कहता था कि पैसे रखना बिलकुल व्यर्थ है। उससे उसने कहा, कहो मित्र, क्या खयाल है? पैसा रखना व्यर्थ है या सार्थक है? वह दूसरा आदमी सिर्फ हंसता रहा। फिर उसने पांच रुपए निकाले, मांझी को दिए।
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वह जीत गया है। फिर वे नाव पर सवार हुए और उस पार पहुंच गए। फिर उतर कर उसने कहा, कहो मित्र, आज नदी के पार न उतर पाते, अगर पैसे पास न होते। वह दूसरा खूब हंसने लगा। उसने कहा, हम पैसे पास होने की वजह से नदी पार नहीं उतरे हैं। तुम पैसे छोड़ सके, इसलिए नदी के पार उतरे हैं। पैसा होने से नहीं, पैसा छोड़ने से उतरे हैं नदी के पार। दलील फिर अपनी जगह खड़ी हो गई। उसने कहा, मैं सदा कहता हूं, पैसे छोड़ने की हिम्मत होनी चाहिए संन्यासी को। हम पैसे छोड सके, इसलिए पार आ गए। अगर तुम पकड लेते, न छोड़ते, तो कैसे पार आते?
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अब बड़ी मुश्किल हो गई। वह दूसरा भी हंसा। वे दोनों अपने गुरु के पास गए और मरते हुए गुरु से उन्होंने पूछा कि क्या करें? बड़ी मुश्किल है! और आज तो घटना ऐसी घट गई है साफ साफ। पहले वाले ने कहा कि पैसे थे, इसलिए हम उतरे हैं और दूसरा कहता है, पैसे छोड़े, इसलिए हम उतरे हैं। और हम अपने सिद्धातों पर अडिग हैं। और हमारे दोनों के सिद्धात ठीक मालूम पड़ते हैं। वह गुरु खूब हंसा। उसने कहा कि तुम दोनों पागल हो। तुम वही पागलपन कर रहे हो, जो आदमी बहुत जमाने से कर रहा है। क्या पागलपन है? उन्होंने पूछा। गुरु ने कहा, तुम एक सत्य के आधे हिस्से को देख रहे हो। यह सच है कि पैसे छोड़ने से ही तुम नाव से उतर सके, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि तुम पैसे इसलिए छोड़ सके कि पैसे तुम्हारे पास थे। और यह भी सच है कि पैसे पास होने से ही तुम नदी पार उतरे, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि अगर पास ही होते तो तुम नदी उतर न सकते थे। तुम पास से दूर कर सके, इसलिए तुम नदी उतरे। ये दोनों ही बातें सच हैं। और ये दोनों बातें ही इकट्ठा जीवन है और इनमें विरोध नहीं है।
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जीवन के सारे तलों पर ऐसा ही विरोध हमने बांट कर रखा है। और हर विरोध का मानने वाला अपनी दलील दे सकता है। कठिनाई नहीं है। क्योंकि उसके पास भी आधी जिंदगी तो है ही। और आधी जिंदगी कोई कम बात है? बहुत है, दलील के लिए काफी है। इसलिए दलील से कुछ हल नहीं होता, खोजना पड़ेगा पूरी जिंदगी को।
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मैं मृत्यु सिखाता हूँ ~ ओशो
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